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Sunday, 2 December 2018

सूखती नदी

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

संग ले चली थी, ये असंख्य बूँदें,
जलधार राह के, कई खुद में समेटे,
विकराल लहरें, बाह में लपेटे,
उत्श्रृंखलता जिसकी, कभी तोड़ती थी मौन,
वो खुद, अब मौन सी हुई है...

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

कभी लरजती थी, जिसकी धारें,
पुनीत धरा के चरण, जिसने पखारे,
खेलती थी, जिनपर ये किरणें,
गवाही जिंदगी की, देती थी प्रवाह जिसकी,
वो खुद, अब लुप्त सी हुई है.....

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

अस्थियाँ, विसर्जित हुई है जिनमें,
इस सभ्यता की नींव, रखी है जिसने,
कायम, परम्पराएँ है जिनसे,
कहानी मान्यताओं की, जीवित है जिनसे,
वो खुद, अब मृत सी हुई है....

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

शेष हैं बची, विलाप की चंद बूँदें,
कई टूटे से सपने, कई लुटे से घरौंदे,
सूखे से खेत, बंजर सी जमीं,
हरीतिमा प्रीत की, लहलहाती थी जिनसे,
वो खुद, अब सूख सी गई है....

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

कोई आता नहीं, अब तीर इनके,
अब लगते नहीं यहाँ, मेले बसंत के,
स्पर्श कोई भी, इसे करता नहीं,
कभी धुलते थे जहाँ, सात जन्मों के पाप,
वो खुद, अब अछूत सी हुई है.....

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!