उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
विशाल होकर भी कितनी शालीन,
उम्रदराज होकर भी नित नवीन,
एकांत में रहकर भी कितनी हसीन,
मुखर मौन, भाव निरापद और संज्ञाहीन....
उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
ताप में रहकर भी कितनी शीतल,
शांत रहकर भी लगती चंचल,
दरिया बनकर बह जाती कलकल,
प्रखर सादगी, उदार चेतना और प्रांजल......
उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
न ही कोई द्वेष, न ही कोई दुराव,
सबों के लिए एक सम-भाव,
न आवश्यकता, न कोई अभाव,
शिखर उत्तुंग, शालीन और विनम्रभाव.......
उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
-------------------------------------------------------------------सम्मान@
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विशाल होकर भी कितनी शालीन,
उम्रदराज होकर भी नित नवीन,
एकांत में रहकर भी कितनी हसीन,
मुखर मौन, भाव निरापद और संज्ञाहीन....
उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
ताप में रहकर भी कितनी शीतल,
शांत रहकर भी लगती चंचल,
दरिया बनकर बह जाती कलकल,
प्रखर सादगी, उदार चेतना और प्रांजल......
उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
न ही कोई द्वेष, न ही कोई दुराव,
सबों के लिए एक सम-भाव,
न आवश्यकता, न कोई अभाव,
शिखर उत्तुंग, शालीन और विनम्रभाव.......
उन पहाड़ों में कहीं, खुद को छोड़ आया था मैं....
-------------------------------------------------------------------सम्मान@
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