Friday, 22 January 2016

सांध्य झंझावात

झंझावात क्या डरा पाएंगे जीवन को?

सांध्य गगन में उड़ते नीड़ों को खग,
रवानियाँ करते झूमते हवाओं मे तब,
भूले रस्ता झंझा के झोंकों में पड़कर,
हठात् सोचते क्या  होगा आगे अब।

झंझावात क्या ले पाएंगे जीवन से?

पीड़ा पंखों की उठती चुभती दंश सी,
भेंट चढ गए मित्र-गण झंझावात की,
चिन्ता सताती नीर  व नन्हे चूजों की,
नन्ही जान अटक सी जाती खग की।

झंझावात कितना सताएंगे जीवन को?

सांध्य निष्ठुर कैसा जीवन का आँचल,
उपर गरजता प्रलय के काले बादल,
फुफकारता नाग सा सृष्टि का अंचल,
जीवन फिर भी रुकता नही प्रतिपल।

झंझावात क्या रोक पाएंगे जीवन को?

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