वो, जो मन को भाता है,
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......
हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....
वो, जो मन को भाता है,.......
कभी मन ये दूर निकल जाता है,
तन्हा फिर भी रह जाता है,
मरुभूमि से सूने आंगण में काँटों सा,
जब नागफनी डस जाता है,
नीरवता के उस बीहड़ जंगल में,
व्याकुल सा ये मन जब घबरा जाता है,
फिर करता है अपने मन की,
वो, जो मन को भाता है,.......
जब कोई भी लम्हा तड़पाता है,
सुख चैन भटक सा जाता है,
छूट जाती है जब मंजिल की आशा,
और हताश पल डस जाता है,
जीवन के उस बिखरे से प्रांगण में,
विह्वल मन जब खुद को तन्हा पाता है,
करता है फिर अपने मन की,
वो, जो मन को भाता है,.......
नीरवता से कहीं दूर, मीलों दूर, .......
हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....
वो, जो मन को भाता है,.......
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......
हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....
वो, जो मन को भाता है,.......
कभी मन ये दूर निकल जाता है,
तन्हा फिर भी रह जाता है,
मरुभूमि से सूने आंगण में काँटों सा,
जब नागफनी डस जाता है,
नीरवता के उस बीहड़ जंगल में,
व्याकुल सा ये मन जब घबरा जाता है,
फिर करता है अपने मन की,
वो, जो मन को भाता है,.......
जब कोई भी लम्हा तड़पाता है,
सुख चैन भटक सा जाता है,
छूट जाती है जब मंजिल की आशा,
और हताश पल डस जाता है,
जीवन के उस बिखरे से प्रांगण में,
विह्वल मन जब खुद को तन्हा पाता है,
करता है फिर अपने मन की,
वो, जो मन को भाता है,.......
नीरवता से कहीं दूर, मीलों दूर, .......
हौले से छू जाता है,
नीरव पल में सहलाता है
काल समय सीमा के परे,
स्पंदन बन जाता है....
वो, जो मन को भाता है,.......
कहीं मुझको मीलों दूर लिए जाता है.......
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