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Sunday, 27 March 2016

अनहद नाद से अंजान जीवन

उलझी जटाओं में जकड़ा गंगा सा मन,
शिवत्व को तज गंगोत्री की भ्रमन कर रहा तन,
अनंत लक्ष्य की तलाश में परेशान जीवन,
सुखद वर्तमान की अनहद नाद से अंजान जीवन।

बूंद-बूंद उल्लासित टूटकर जीवन में,
स्वाति कण नभ से बिखरे जीवन के प्रांगण में,
कण-कण जीवन के समर्पित इस क्षण में,
सुरमई रंग विहँसते कलियों के अधखुले संपुट में।

नाद वही अनहद बजा पहले जो धरा पर,
अनहद नाद कहाँ बन पाते बाकि के सारे स्वर,
कस्तूरी नाभि लिए फिरता मानव यहाँ पर,
चक्रव्युह में उलझा जीवन मृगतृष्णा की दंश झेलकर।

अंतःकरण प्रखर हो लक्ष्य यही जीवन का,
क्षुधा, पिपासा, मृगतृष्णा का अन्त लक्ष्य जीवन का,
हरपल अनहद नाह की गूंज चाह श्रवण का,
हृदय के तार-तार टूटकर भी गाएँ मधुर गीत जीवन का ।