Showing posts with label बहका-बहका. Show all posts
Showing posts with label बहका-बहका. Show all posts

Wednesday, 22 December 2021

चादर

किसने बिछा दी, एक कोहरे की, चादर?
और तान दी, उस पर, जरा सी धूप,
सिकुड़ता हुआ, वक्त का रुका ये लम्हा,
कांपता सा, बदन लिए,
भला, जाए किधर!

बस, सोचता रहा, खुद को खोजता रहा!
कुरेदता रहा, वो कोहरा सा चादर,
कि, छू ले, वो धुंधली धूप जरा आकर,
जमा सा, ये बंधा लम्हा,
थोड़ा, जाए बिखर!

मगर, वो धूप, बदल कर, कितने ही रूप!
हँसता रहा, चादरों में सिमट कर,
बीतता रहा, वक्त संग, बंधा हर लम्हा,
मींच कर, खुली पलकें,
जागा, वो रात भर!

किसने बिछा दी, एक कोहरे की, चादर?
और जगा दी, अजीब सी कशिश,
अन्दर ही अन्दर, जगी सी इक चुभन,
बहकी-बहकी ये पवन,
अब, जाए किधर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)