Sunday, 19 August 2018

फासले

यूं मिलिए कभी, गिरह नफ़रतों के खोलकर....

चंद कदमों के है ये फासले,
कभी नापिए न!
इन दूरियों को चलकर...
मिल ही जाएंगे रास्ते,
कभी झांकिए न!
इन खिड़कियों से निकलकर..

संग जब भी कहीं डोलते हो,
बेवजह बहुत बोलते हो,
दो बोल ही बोल ले,
मन में मिठास घोलकर,
आओ बैठो कभी,
ये जुबाने खंजर कहीं भूलकर...

यूं तो नफ़रतों के इस दौर में,
मिट गई हैं इबारतें,
सूनी सी पड़ी है महफ़िल,
और बच गईं हैं कुछ रिवायतें,
आओ फिर से लिखें,
इक नई इबारत कहीं मिलकर...

कम हो ही जाएंगे ये फासले,
मिट जाएंगी दूरियां,
न होंगी ये राहें अंधेरी,
हर कदम पे सजेंगी महफिल,
फूल यूं ही जाएंगे खिल,
आइये न खुली वादियों में चलकर...

यूं मिलिए कभी, गिरह नफ़रतों के खोलकर....

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