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Saturday, 28 May 2022

रिक्त


उस सूनेपन में...
रात ढ़ले, ढ़ल जाऐंगे, जब वो तारे,
होंगे रिक्त बड़े, आकाश!

प्रतीक्षित होगा, तब दिन का ढ़लना,
अपेक्षित होगा, तम से मिलना,
दिन के सायों में, फैलाए खाली दामन,
‌रहा बिखरा सा आकाश!

टूटे ना टूटे, इस, अन्त:मन के बंधन,
छूटे ना छूटे, लागी जो लगन,
कंपित जीवन के पल, रिक्त लगे क्षण,
लगे उलझा सा आकाश!

रिक्त क्षणों में, संशय सा ये जीवन,
उन दिनों में, सूना सा आंगन,
लगे गीत बेगाना, हर संगीत अंजाना,
इक मूरत सा, आकाश!

उस सूनेपन में...
दिन ढ़ले, कहीं ढ़ल जाऐंगे, नजारे,
मुखर हो उठेंगे आकाश!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 10 December 2021

रिक्त क्षणों का क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

कंपन, गुंजन, खनखन, बस कहने को हैं,
कलकल, छलछल, ये पल,
बहती ये नदियां, बस बहने को हैं,
सिक्त हुईं, फिर छलक पड़ी, दो आँखें,
उन धारों के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

तट पे आकर, टकरातीं सागर की लहरें,
शायद, आती हैं ये कहने,
विचलन, सागर की, बढ़ने को हैं,
सिमट चुकी, कितनी ही नदियां उनमें,
उस पानी के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

रिम-झिम-रिम-झिम, बारिश होने को है,
भीगेंगे, सूखे ये सारे कण,
ये उद्विगनता, अब बढ़ने को है,
फिर लौट पड़ेंगे, लहराते बादल सारे, 
उन बौछारों के पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

यूं अग्नि का जलना, मौसम का छलना,
यूं रुत संग रंग बदलना,
ये फितरत, जारी सदियों से है,
रात ढ़ले, जब ढ़ल जाते ये सारे तारे,
उन तारों के, पीछे क्या?

उन रिक्त क्षणों का क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 11 August 2020

संक्षिप्त

संक्षिप्त हुए, विस्तृत पटल पर रंगों के मेले!
संक्षिप्त हुए, समय के सरमाए,
हुई सांझ, वो जब आए,
बेवजह, ठहरे सितारों के काफिले,
हुए संक्षिप्त से!

संक्षिप्त से हो चले,
लम्बी होती, बातों के सिलसिले,
रुके, शब्दों के फव्वारे,
अंतहीन, रिक्त लम्हों से भरे,
दिन के, उजियारे,
रहे, कुछ अधखिले से फूल,
कुछ चुभते शूल,
संक्षिप्त से!

संक्षिप्त से, वो पल,
पल पल, विस्तृत होते, वो पल,
सिमटने लगे, वो कल,
खनके जो, कहीं वादियों में,
चुप से, हैं अब,
गुमसुम, यूँ हीं रिक्त से,
खुद में, लिप्त से,
संक्षिप्त से!

अतृप्त मन की जमीं, भीगी यूँ अलकों तले!
ऊँघती जगती सी, पलकों तले,
विलुप्त हुए, चैनो शुकुन,
बेवजह, लड़खड़ाते नींदों के पहरे,
हुए संक्षिप्त से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 16 August 2017

भावस्निग्ध

कंपकपाया सा क्युँ है ये, भावस्निध सा मेरा मन?

मन की ये उर्वर जमीं, थोड़ी रिक्त है कहीं न कहीं!
सीचता हूँ मैं इसे, आँखों में भरकर नमीं,
फिर चुभोता हूँ इनमें मैं, बीज भावों के कई,
कि कभी तो लहलहाएगी, रिक्त सी मन की ये जमीं!

पलकों में यूँ नीर भरकर, सोचते है मेरे ये नयन?

रिक्त क्युँ है ये जमीं, जब सिक्त है ये कहीं न कहीं?
भिगोते हैं जब इसे, भावों की भीगी नमी,
इस हृदय के ताल में, भँवर लिए आते हैं ये कई,
गीत स्नेह के अब गाएगी,  रिक्त सी मन की ये जमीं!

भावों से यूँ स्निग्ध होकर, कलप रहा है क्युँ ये मन?