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Thursday, 21 July 2022

बस चुनना था


रंग कई थे, बस चुनना था!

उभरे थे, पटल पर, अनगिन परिदृश्य,
छुपा उनमें ही, इक, बिंबित भविष्य,
कोई इक राह, पहुंचाती होगी साहिल तक,
राह वही, इक चुनना था,
दूर तलक, बस, उन पर चलना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

पंख लिए, उड़ा ले जाते, ख्वाब कहीं,
मन को, पथ से भटकाते चाह कई,
कहीं दूर, बहा ले जाते, दुविधाओं के पल,
हासिल जो, चुनना था,
चाहत के रंग, उनमें ही, भरना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

उलझन, उलझाएगी, हर चौराहों पर,
जीवन, ले ही जाएगी दो राहों पर,
हर सांझ, पटल पर छाएंगे रंगी परिदृश्य,
लक्षित, पथ चुनना था, 
उलझे भ्रम के जालों से बचना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

अशांत मन, होता है यूं ही शांत कहां,
बेवजह उलझन का, यूं अंत कहां,
सपन अनोखे, भर लाएंगे दो चंचल नैन,
चैन खुद ही चुनना था,
चुनकर ख्वाब वही इक बुनना था!

रंग कई थे, बस चुनना था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 6 July 2021

ऊहापोह

स्मृति के, इस गहराते पटल पर,
अंकित, हो चले वो भी!

यूँ, आसान नहीं, इन्हें सहेजना,
मनचाहे रंगों को, अनचाहे रंगों संग सीना,
यूँ, अन्तःद्वन्दों से, घिर कर,
स्मृतियों संग, जीना!

पर, वक्त के, धुँधलाते मंज़र पर,
अमिट, हो चले वो भी!

यूँ, जीवन के इस ऊहापोह में,
रिक्त रहे, कितनी ही, स्मृतियों के दामन,
बिखरी, कितनी ही स्मृतियाँ,
सँवर जाते वो काश!

जीवन के, इस गहराते पथ पर,
संचित, हो चले वो भी!

यूँ कल, विखंडित होंगे, ये पल,
फिर भी, स्मृतियाँ, खटखटाएंगी साँकल,
देंगी, जीवन्त सा, एहसास,
अनुभूति भरे, पल!

सांध्य प्रहर, गहराते क्षितिज पर,
शामिल, हो चले वो भी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 11 March 2021

जो गुजर गए

यह आघात, सह भी जाऊँ, 
यह दरिया दु:ख का, तर भी जाऊँ, 
उनको, वापस कैसे पाऊँ?
जो गुजर गए!

अन्त नहीं, इस लंबित वेदना का,
इस कुंठित चेतना का,
आसान नहीं, अपनों को खो देना,
है कठिन बड़ा, बिसार देना,
मन से उतार देना,
वो आभा मंडल, हो कैसे ओझल?
ठहरा सा, ये दृष्टि-पटल,
किधर भटकाऊँ!
वापस, उन्हें कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

छलके रुक जाए, वो नीर नहीं,
मंद पड़े, वो पीड़ नहीं,
आहत हो मन, अपनों को खोकर,
तो, नैन थके कब, रो-रो कर!
छलके, फफक परे,
उन यादों की, गलियारों में खोकर,
नैन तके, वो सूनी राहें,
वो ही पदचाप!
फिर वापस, कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

आघात नहीं, यह इक वज्रपात,
साथ नहीं, चलती रात,
वो अपने पथ, आहत मैं अपने पथ,
दुःख दोनों ही का, इक जैसा!
कौन किसे बहलाए,
दूर गुमसुम, चुप-चाप गुजरती रात,
जागे ये नैन, सारी रात,
किस्से सी बात!
अब, वापस, कहाँ से लाऊं?
जो गुजर गए!

यह आघात, सह भी जाऊँ, 
यह दरिया दु:ख का, तर भी जाऊँ, 
उनको, वापस कैसे पाऊँ?
जो गुजर गए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 11 August 2020

संक्षिप्त

संक्षिप्त हुए, विस्तृत पटल पर रंगों के मेले!
संक्षिप्त हुए, समय के सरमाए,
हुई सांझ, वो जब आए,
बेवजह, ठहरे सितारों के काफिले,
हुए संक्षिप्त से!

संक्षिप्त से हो चले,
लम्बी होती, बातों के सिलसिले,
रुके, शब्दों के फव्वारे,
अंतहीन, रिक्त लम्हों से भरे,
दिन के, उजियारे,
रहे, कुछ अधखिले से फूल,
कुछ चुभते शूल,
संक्षिप्त से!

संक्षिप्त से, वो पल,
पल पल, विस्तृत होते, वो पल,
सिमटने लगे, वो कल,
खनके जो, कहीं वादियों में,
चुप से, हैं अब,
गुमसुम, यूँ हीं रिक्त से,
खुद में, लिप्त से,
संक्षिप्त से!

अतृप्त मन की जमीं, भीगी यूँ अलकों तले!
ऊँघती जगती सी, पलकों तले,
विलुप्त हुए, चैनो शुकुन,
बेवजह, लड़खड़ाते नींदों के पहरे,
हुए संक्षिप्त से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)