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Friday, 23 June 2017

विखंडित मन

विखंडित ऐ मेरे मन! मैं तुझको कैसे समझाऊँ?

हैं अपने ही, वो जिनसे रूठा है तू,
हुआ क्या जो, खंड-खंड बिखरा या टूटा है तू,
है उनकी ये नादानी, जिनके हाथों टूटा है तू,
माना कि टूटी है, वीणा तेरे अन्तर की,
अब मान भी जा, गीत वही फिर से दोहरा दे तू।

विखंडित ऐ मेरे मन! मैं मन ही मन कैसे मुस्काऊँ?

संताप लिए, अन्दर क्यूं बिखरा है तू,
विषाद लिए, अपने ही मन में क्यूं ठहरा है तू,
उसने खोया है जिसको, वो ही हीरा है तू,
क्यूं फीकी है, मुस्कान तेरे अन्तर की?
अब मान भी जा, फिर से खुलकर मुस्का दे तू।

विखंडित ऐ मेरे मन! चल गीत कोई गा मेरे संग तू!