इक लहर बन के लहराते अगर मन की इस बाग पे!
फुहार बन के बरसे थे वो एक दिन,
खिल उठी थी विरानियों में गुलशन वहीं,
चमन की हर शाख पर बूँदें छलक आई थी,
गर्म पत्तो की साँसे भी लहराई थी।
फिर वही ढूंढ़ता है दिल फुहारों के दिन,
वो बरसात किस काम की जब बहारें न हों,
बूँदें छलकती रहें चमन की हर शाख पर,
हरी पत्तियों की साँसें कभी गर्म न हों।
वादियों के ये दामन पुकारती हैं तुम्हें,
ये खुला आसमाँ फलक पे ढ़ूंढ़ती हैं तुम्हें,
गुम हुए तुम कहाँ चमन की शाख से,
इक लहर बन के लहराओ मन की इस बाग पे।
फुहार बन के बरसे थे वो एक दिन,
खिल उठी थी विरानियों में गुलशन वहीं,
चमन की हर शाख पर बूँदें छलक आई थी,
गर्म पत्तो की साँसे भी लहराई थी।
फिर वही ढूंढ़ता है दिल फुहारों के दिन,
वो बरसात किस काम की जब बहारें न हों,
बूँदें छलकती रहें चमन की हर शाख पर,
हरी पत्तियों की साँसें कभी गर्म न हों।
वादियों के ये दामन पुकारती हैं तुम्हें,
ये खुला आसमाँ फलक पे ढ़ूंढ़ती हैं तुम्हें,
गुम हुए तुम कहाँ चमन की शाख से,
इक लहर बन के लहराओ मन की इस बाग पे।
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