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Sunday, 19 October 2025

राह दिखाए रब

आश लिए कितने, गिनता अपनी ही आहें,
घिरा किन विरोधाभासों में, जाने मन क्या चाहे,
कभी उमड़ते, जज्बातों के बादल,
कभी, सूना सा आंचल!

बंधकर, कितनी बातों में, बंधती है आशा,
पलकर, कितनी आशों में, टूटी कितनी आशा,
कभी बुझ जाती, हर इक प्यास,
कभी, रह जाता प्यासा!

उस पल रह जाता, बस इक विरोधाभास,
उसी इक पल, जग जाता, जाने कैसा विश्वास,
कभी, दुविधाओं भरा वो आंगन,
कभी, पुलक आलिंगन!

उम्मीदें ले आती, आवारा मंडराते बादल,
दिलासा दे जाते, सहलाते हवाओं के आंचल,
क्षण भर को, जग उठती उम्मीदें,
फिर, छूटी, सारी उम्मीदें!

बंधा जीवन, मध्य इन्हीं विरोधाभासों में,
कटता हर क्षण, यूं उपलाते इन एहसासों में,
अकस्मात, कोरे पन्नों से जज्बात,
कह उठते, मन की बात!

दोनों ही तीर, उमड़े, जज्बातों के भीड़,
कभी छलक उठते ये पैमाने, बह उठते नीर,
ढ़ाढस, इस मन को, कौन दे अब,
राह दिखाए, वो ही रब!

Saturday, 12 October 2019

नदी किनारे

डूब कर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

एक विरोधाभास, दो मनोभाव,
एक निरंतर बहती नदी, दो प्रभाव,
इच्छाओं से, जिजीविषा तक!
दो विपरीत कामनाएं, एक ही फैलाव,
सिमट आते हैं सारे, नदी किनारे!

जीवित है, धूल में इक आशा,
कभी तो, रीत जाएगी वो जरा सा,
नदी, खुद आएगी उस तक!
फूल सा, खिल जाएगी वो भीग कर!
धूप सहती है धूल, नदी किनारे!

सुदूर पड़ी, वो धूल हैं आकुल,
सदियों से, मन उनके हैं व्याकुल,
नदी, कब आएगी उस तक?
कब फूल, बन पाएंगी वो खिल कर?
पछताती वो धूल, नदी किनारे!

आश-निराश के, ये दो कण,
तृप्ति-अतृप्ति के, वो मौन क्षण,
पसरा, नदी का वो आँचल,
खामोश बहती, कल-कल सी जल,
चुप-चुप हैं सारे, नदी किनारे!

डूबकर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday, 5 January 2019

जब तुम गए

यद्यपि अलग थे तुम, पर सत्य न था ये...

निरंतर मुझसे परे,
दूर जाते,
तुम्हारे कदम,
विपरीत दिशा में,
चलते-चलते,
यद्यपि,
तुम्हें दूर-देश,
लेकर गए थे कहीं,
सर्वथा,
नजरों से ओझल,
हुए थे तुम,
पर ये,
बिल्कुल ही,
असत्य था कि,
तनिक भी,
दूर थे तुम मुझसे...

यद्यपि जुदा थे तुम, पर सत्य न था ये...

उत्तरोत्तर मेरे करीब,
आती रही,
तुम्हारी सदाएं,
इठलाती सी बातें,
मर्म यादें,
मखमली सा स्पर्श,
तुम्हारा अक्श,
बोलती सी आँखें,
दिल की आहें,
मन के कराह,
पुकार तुम्हारी ही,
गूंजती रही,
आसपास मेरे,
दूर जाती,
राहों के प्रवाह,
हर कदम,
करीब आते रहे मेरे...

यद्यपि विलग थे तुम, पर सत्य न था ये...

परस्पर विरोधाभास,
एक आभास,
जैसे,
हो तुम,
बिल्कुल ही पास,
छाया सी,
तुम्हारी,
हो दूर खड़ी,
सूनी राहें, सूनी बाहें,
निरर्थक,
सी ये बातें,
जबकि तुम हो यहीं,
चादरों,
की सिलवटों से,
तुम ही,
हो झांकते,
प्रतिध्वनि तेरी,
गूंजती है मन में मेरे....

यद्यपि दूर थे तुम, पर सत्य न था ये...