सोचता हूँ कभी!
विशाल समुन्द्र का विस्तृत दामन,
कितना समृद्ध और साधन सम्पन्न,
अधिकता की सीमा से अधिक धन,
विस्तार की सीमा से ज्यादा विस्तृत,
फिर भी कितना अस्थिर इसका मन?
सोचता हूँ कभी!
विशाल समुन्द्र क्युँ रहता विचलित?
अनवरत गर्जते जल-राशि की तड़प,
विकराल होती हुई उठती ऊँची लहर,
हृदय के अन्दर समेटे अनेकों भँवर,
विषमता उद्वेलित कर देती मेरा मन।
सोचता हूँ कभी!
उस छोटी सी नदी की क्या है गलती?
दुर्गम पहाड़ों के शिखर पर यह पलती,
घने जंगल, कंकड़, पत्थरों से गुजरती,
सूखी बंजर धरती को सींच उर्वर करती,
फिर क्युँ ना हो विचलित इसका मन?
सोचता हूँ कभी!
विस्तृत दामन सागर क्या हो पाया परिपू्र्ण?
खुद की विचलन पर क्यूँ न रखता नियंत्रण?
सागर का विशाल हृदय फिर किस काम का?
फिर क्यों न हो उद्वेलित सीमित नदी का मन?
विषमता देख इनमें उद्वेलित होता मेरा मन!