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Sunday, 10 November 2024

दफ्न


अधीर मन, सुने कहां!
नित छेड़े, दफ्न कोई दास्तां.....

कारवां सी, बहती ये नदी,
अक्श, बहा ले जाती,
बह जाती, सदी,
बहते कहां, सिल पे बने निशां,
बहते कहां, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां....

लगे दफ्न सी, कहीं दास्तां,
ज्यूं, ओझल कहकशां,
रुकी सी कारवां,
चल पड़े हों, जगकर सब निशां,
सुनाते इक, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां.....

खींच लाए, फिर उसी तीर,
बहे जहां, धार अधीर,
जगाए, सोेए पीर,
जगाए सारे, दफ्न से हुए निशां,
सुनाए वही, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां....

पर न अब, उस ओर जाएंगे,
जरा उसे भी समझाएंगे,
सोचूं, नित यही,
पर, कब सुने मन जिद पे अड़ा,
सुनाए वही, दास्तां!

अधीर मन, सुने कहां!
नित छेड़े, दफ्न कोई दास्तां.....

Sunday, 18 June 2023

आशाओं तक

दो तीर, चले मन,
अधीर,
अन्तः कोई पीर लिए मन!

इक तीर, ठहराव भरा,
विस्तृत, आशाओं का द्वार हरा,
दूजे, धार बड़ा,
पग-पग, इक मझधार खड़ा,
आशाएं, बांध चले मन!

छिछली सी, राहों पर,
अन्तहीन, उथली सी चाहों पर,
उस ओर चले,
जिस ओर, सन्नाटों सा शोर,
अल्हड़, मौन रहे मन!

सांझ, किरण कुम्हलाए,
‌निराशाओं के, बादल ले आए,
चले मौन पवन,
बांधे कब ढ़ाढ़स, तोड़ चले,
बंध, तोड़ बहे ये मन!

धूमिल सी, वो आशाएं,
छिछली सी, ये अंजान दिशाएं,
खींच लिए जाए,
थामे, धीरज का इक दामन,
सरपट, दौड़ चले मन!

दो तीर, चले मन,
अधीर,
अन्तः कोई पीर लिए मन!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 16 May 2023

अक्सर

अक्सर, जग आए इक एहसास....

रुक जाए, घन कोई चलते-चलते,
घिर आए, इक बदली,
गरजे कोई बादल,
चमके बिजुरी,
उस सूने आकाश!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

झुक जाए, पेड़ घना सूने से रस्ते,
और संग करे अटखेली,
छू कर बहे पवन,
वही अलबेली,
हो, जिसकी आस!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

हो अधीर मन, पाने को इक पीड़,
ज्यूं सदियों अंक पसारे,
बैठा हो, इक तीर,
बहते वे धारे,
ठहर जाते काश!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

क्यूं, छल जाए अनमनस्क मन,
क्यूं, छलके कोई नयन,
क्यूं, रुक जाए सांस,
क्यूं, टूटे आस,
क्यूं, विरोधाभास!

अक्सर, जग आए इक एहसास....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 24 March 2021

स्वप्न कोई खास

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

समेट कर, सारी व्यग्रता,
भर कर, कोई चुभन,
बह चली थी, शोख चंचल सी, इक पवन,
सिमटती वो सांझ,
डूबता, गगन,
कैसे न होता, एक अजीब सा एहसास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

दीप तले, सिमटती रात,
वो, अधूरी सी बात,
कोई जज्बात लिए, वो सांझ की दुल्हन,
डूबता सा आकाश,
खींचता मन,
दिलाता रहा, उन आहटों का पूर्वाभास,
अधीर सा करता, एक आभास!

उलझे ये नैन, बुनते रहे, स्वप्न कोई खास!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 15 November 2020

गहरी रात

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

इक दीप जला है, घर-घर,
व्यापा फिर भी, इक घुप अंधियारा,
मानव, सपनों का मारा,
कितना बेचारा,
चकाचौंध, राहों से हारा,
शायद ले आए, इक नन्हा दीपक!
उम्मीदों की प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

कतरा-कतरा, ये लहू जला,
फिर कहीं, इक नन्हा सा दीप जला,
निर्मम, वो पवन झकोरा,
तिमिर गहराया,
व्याकुल, लौ कुम्हलाया,
मन अधीर, धारे कब तक ये धीर!
कितनी दूर प्रभात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!

तम के ही हाथों, तमस बना,
इन अंधेरी राहों पर, इक हवस पला,
बुझ-बुझ, नन्हा दीप जला,
रातों का छला,
समक्ष, खड़ा पराजय,
बदले कब, इस जीवन का आशय!
अधूरी, अपनी बात!

कितनी गहरी, ये रात!
दिवा-स्वप्न की, तू ना कर बात!
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दीपावली का दीप, इक दिवा-स्वप्न दिखलाता  गया इस बार। कोरोना जैसी संक्रमण, विश्वव्यापी मंदी, विश्वयुद्ध की आशंका, सभ्यताओं से लड़ता मानव, मानव से ही डरता मानव आदि..... मन में पलती कितनी ही शंकाओं और इक उज्जवल सभ्यता की धूमिल होती आस के मध्य जलता, इक नन्हा दीप! इक छोटी सी लौ....गहरी सी ये रात.... और पलता इक दिवास्वप्न!
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 April 2020

भ्रम

यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

बहते कहाँ, बहावों संग, तीर कहीं,
रह जाती सह-सह, पीर वहीं,
ऐ अधीर मन, तू रख धीर वही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

तूफाँ हैं दो पल के, खुद बह जाएंगे,
बहती सी है ये धारा, कब तक रुक पाएंगे,
परछाईं हैं ये, हाथों में कब आएंगे,
ये आते-जाते से, साए हैं घन के,
छाया, कब तक ये दे पाएंगे?
इक भ्रम है, मिथ्या है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

गर चाहोगे, तो प्यास जगेगी मन में,
गर देखोगे, परछाईं ही उभरेगी दर्पण में,
बुन जाएंगे जाले, ये भ्रम जीवन में,
उलझाएंगे ही, ये धागे मिथ्या में,
सुख, कब तक ये दे पाएंगे?
इक छल है, तृष्णा है, रह इनसे, दूर कहीं,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

पिघले-पिघले हो, मन में नीर सही,
अनवरत उठते हों, पीर कहीं,
भींगे-भींगे हों, मन के तीर सही,
यूँ, तट से, ना बह दूर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 25 January 2020

तन्हाई में कहीं

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

मन को चीर रही, ये शोर, ये भीड़,
हो चले, कितने, ये लोग अधीर,
हर-क्षण है रार, ना मन को है करार, 
क्षण-भर न यहाँ, चैन जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

सुई सी चुभे, कही-अनकही बातें,
मन में ही दबी, अनकही बातें,
कैसे, कर दूँ बयाँ, दर्द हैं जो हजार,
समझा, इस मन को जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

वो छाँव कहाँ, मिले आराम जहाँ,
वो ठाँव कहाँ, है शुकून जहाँ,
नफ़रतों की, चली, कैसी ये बयार,
बहला, मेरे मन को जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 30 May 2016

ऐ अधीर मन

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

आकाक्षाओं की सीमा का कहीं अन्त नहीं,
अभिलाषाओं के पंछी पर कहीं तेरा वश नहीं,
तेरी उत्कंठाएँ तुझको खींचती है कहीं और,
देख तू संयम रख, दिगभ्रमित पल भर को न हो जाना,

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

वर्जनाओं के बंधन पाश यहाँ तुझको हैं घेरे,
जटिलताएँ इस जीवन की तेरी राहों के हैं रोड़े,
मोह के ये बंधन तुझको खीचते है कहीं और,
देख तू जरा संभल, अनियंत्रित इक पल को न हो जाना,

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

आश-निराश के पल जीवन में आएँगे जाएँगे,
विफलताओं के असह्य नीरव पल तुझको डराएंगे,
व्यथा के धागे तुझको ले जाएंगे कहीं और,
देख तू विश्वास रख, व्यथित इक पल को न हो जाना

ऐ अधीर मन, तू धीरज रख, तू व्यग्र कभी न होना!

Sunday, 27 December 2015

यादों के नीर

नैनों से जो छलक पड़े हैं,
विह्वल होकर जो सिसक पड़े है,
हैं तेरी यादों के वो नीर।

भावप्रवण जो फफक पड़े है,
अधरों पर जो बरस पड़े हैं
है तेरी यादों के वो जंजीर।

इन भावों से है गहराता सागर,
चखा है जिनको इन अधरों ने,
ये हैं तेरी प्यास के अधीर।

नीर नहीं ये, हैं नीरव अमृत,
पीता जाऊँ मैं इसको जीवनभर,
है जीवन तेरी आस का पीर।

चखा है अमृत अधरों ने पर,
अब भी बाकी प्यास हमारी,
नैनों से अविरल बह जाने को,
विह्वल नीर ने फिर कर ली तैयारी।