काँटा ही कहलाया,
कुछ तुझको ना दे पाया,
सूनी सी, राहों में,
रहा खड़ा मैं!
इक पीपल सा, छाया ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
रोड़ों सा राहों में,
रहा पड़ा मैं!
सत्य की खातिर, सत्य पर अड़ा मैं,
वो अपने ही थे,
जिनके विरुद्ध लड़ा मैं,
अर्जुन की भांति,
सदा खड़ा मैं!
धृतराष्ट्र नहीं, जो बन जाता स्वार्थी,
उठाए अपनी अर्थी,
करता कोई, छल-प्रपंच,
सत्य की पथ पर,
सदा रहा मैं!
संघर्ष सदा, जीवन से करता आया,
लड़ता ही मैं आया,
असत्य, जहाँ भी पाया,
पर्वत की भांति,
रहा अड़ा मैं!
गर, कर्म-विमुख, पथ पर हो जाता,
रोता, मैं पछताता,
ईश्वर से, आँख चुराता,
मन पे इक बोझ,
लिए खड़ा मैं!
इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
कंकड़ सा राहों में,
रहा पड़ा मैं!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत खूब लिखा है आपने।
ReplyDeleteशुक्रिया नीतीश जी। आभारी हूँ ।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 26 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया
Deleteबेहद उम्दा
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (27-04-2020) को 'अमलतास-पीले फूलों के गजरे' (चर्चा अंक-3683) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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सादर आभार आदरणीय
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ReplyDeleteधृतराष्ट्र नहीं, जो बन जाता स्वार्थी,
उठाए अपनी अर्थी,
करता कोई, छल-प्रपंच,
सत्य की पथ पर,
सदा रहा मैं!
वाह!!!
लाजवाब सृजन..।
आदरणीया सुधा देवरानी जी, शुक्रिया आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteवाह
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय जोशी जी।
Deleteवाह!पुरुषोत्तम जी ,बेहतरीन !!
ReplyDeleteकलयुग का काँटा ..कंकड सा राहों में पड़ा रहा मैं ..वाह!!
हार्दिक आभार आदरणीया शुभा जी। आपकी प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteवाह !लाजवाब सृजन आदरणीय सर 👌
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद पुनः स्वागत है आदरणीया । बहुत-बहुत धन्यवाद ।
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