काँटा ही कहलाया,
कुछ तुझको ना दे पाया,
सूनी सी, राहों में,
रहा खड़ा मैं!
इक पीपल सा, छाया ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
रोड़ों सा राहों में,
रहा पड़ा मैं!
सत्य की खातिर, सत्य पर अड़ा मैं,
वो अपने ही थे,
जिनके विरुद्ध लड़ा मैं,
अर्जुन की भांति,
सदा खड़ा मैं!
धृतराष्ट्र नहीं, जो बन जाता स्वार्थी,
उठाए अपनी अर्थी,
करता कोई, छल-प्रपंच,
सत्य की पथ पर,
सदा रहा मैं!
संघर्ष सदा, जीवन से करता आया,
लड़ता ही मैं आया,
असत्य, जहाँ भी पाया,
पर्वत की भांति,
रहा अड़ा मैं!
गर, कर्म-विमुख, पथ पर हो जाता,
रोता, मैं पछताता,
ईश्वर से, आँख चुराता,
मन पे इक बोझ,
लिए खड़ा मैं!
इस अरण्य में, बरगद ना बन पाया,
बन भी क्या पाता?
इस कलयुग का, काँटा!
कंकड़ सा राहों में,
रहा पड़ा मैं!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)