जीवन के क्षणों में,
जीवन, बस रहा, कहीं उन निर्जनों में!
कभी हो जाए, कोई विदा,
फिर भी, मन कह न पाए, अलविदा!
शायद, यही इक सुख-सार,
है यही, संसार,
धागे जोड़ ले मन,
दुरूह, विदाई के क्षणों में ....
भटके ये मन, बंधे, कहीं उन निर्जनों में!
मन से परे, मन के अवयव,
मन सुने, उस अनसुने, गीतों की रव!
कंप-कंपाते, मन की पुकार,
मन की, गुहार,
दूर, कैसे रहे मन,
कंपित, जुदाई के क्षणों में .....
भटके ये मन, बंधे, कहीं उन निर्जनों में!
ढ़ूँढ़े वहाँ मन अपना साया,
विकल्प सारे, वो, जहाँ छोड़ आया!
क्षीण कैसे, हो जाए मल्हार,
नैनों के, फुहार,
कैसे संभले ये मन,
निष्ठुर, रिहाई के क्षणों में .....
जीवन के क्षणों में,
जीवन, बस रहा, कहीं उन निर्जनों में!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
ढ़ूँढ़े वहाँ मन अपना साया,
ReplyDeleteविकल्प सारे, वो, जहाँ छोड़ आया!
क्षीण कैसे, हो जाए मल्हार,
नैनों के, फुहार,
कैसे संभले ये मन,
निष्ठुर, रिहाई के क्षणों में .....
सुन्दर मनोभावों से सुशोभित लाजवाब कृति..
आभार आदरणीया जिज्ञासा जी। बहुत-बहुत धन्यवाद। ।।
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ReplyDeleteकभी हो जाए, कोई विदा,
फिर भी, मन कह न पाए, अलविदा!
शायद, यही इक सुख-सार,
है यही, संसार,
धागे जोड़ ले मन,
दुरूह, विदाई के क्षणों में ... बहुत सुंदर रचना बधाई हो आपको
आभार आदरणीया शकुन्तला जी। बहुत-बहुत धन्यवाद। ।।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (27-01-2021) को "गणतंत्रपर्व का हर्ष और विषाद" (चर्चा अंक-3959) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteह्रदय के संपुट में छिपे मूक भावों को स्वर दिया आपने.
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना.
आभार आदरणीया नुपुरं जी। बहुत-बहुत धन्यवाद। ।।
Deleteतरंगायित मन को सुंदर शब्दों में पिरोया है । पैनी अन्तर्दृष्टि । अति सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद। शुक्रिया।
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