शायद, सपनों के पर,
छूट चले हों, बोझिल पलकों के घर,
उड़ चली नींद,
झिलमिल, तारों के घर,
आकाश तले, संजोए ख्वाब कई,
जागा सा मैं!
जाने, फिर लौटे कब,
शायद, तारों के घर, मिल जाए रब,
खोई सी नींद,
दिखाए, दूजा ही सबब,
पलकें मींचे, नीले आकाश तले,
जागा सा मैं!
ये, सपनों की परियाँ,
शायद, हों इनकी, अपनी ही दुनियाँ,
भूली हो नींद,
अपने, पलकों का जहाँ,
खाली उम्मीदों के, दहलीज पर,
जागा सा मैं!
जाने कब से, घुप अंधियारों में,
पलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
खाली उम्मीद की दहलीज पर जागा सा मैं
ReplyDeleteखूबसूरत पंक्तियां
विनम्र आभार आदरणीया भारती जी।।।।
Deleteअति सुंदर रचना
ReplyDeleteसादर
विनम्र आभार आदरणीय
Deleteजाने कब से, घुप अंधियारों में,
ReplyDeleteपलकें खोले,
जागे से, सपनों को तोले,
जागा सा मैं..…अतिसुंदर रचना
विनम्र आभार आदरणीया शकुन्तला जी
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