Wednesday, 21 July 2021

भटकाव

पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बस भरमाता है, मन,
तरपाता है क्षण!

तन तक, सीमित, रहती नहीं चाहत,
रूह कहीं, पाती नहीं राहत,
बुझती, ये प्यास नहीं,
प्यासा कण-कण, भटकता वन-वन,
सिमटता, यह रेगिस्तान नहीं,
फैलाव., भटकाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....

बिखरे पल, सिमटते, कब दामन में,
टूटे मन, भटकते इस तन में, 
पाते, मन आस नहीं,
दो पल, गर बहल भी जाए, दो तन,
मिलता, इन्हें समाधान नहीं,
विलगाव, भरमाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....

बेघर एहसासों को, कोई ठौर मिले,
ठहरी साँसों को, मोड़ मिले,
पर, वो जज्बात नही,
सूखे पतझड़ सा, उजाड़ ये उपवन,
खिलाते, इक अरमान नहीं,
भटकाव, तरसाता है!

पाकर भी, कौन किसे पाता है....
बस भरमाता है, मन,
तरपाता है क्षण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

10 comments:

  1. जब तक ये पाने की ख्वाहिश रहती तब तक न भटकता ही रहता ।
    मन के भावों को शब्द दिए हैं। सुंदर रचना ।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद, विनम्र आभार आदरणीया संगीता जी।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२४-०७-२०२१) को
    'खुशनुमा ख़्वाहिश हूँ मैं !!'(चर्चा अंक-४१३५)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. बेघर एहसासों को, कोई ठौर मिले,
    ठहरी साँसों को, मोड़ मिले,
    पर, वो जज्बात नही,
    सूखे पतझड़ सा, उजाड़ ये उपवन,
    खिलाते, इक अरमान नहीं,
    भटकाव, तरसाता है! बहुत सुंदर रचना आदरणीय ‌‌।

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  4. बहुत सुंदर रचना

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