Sunday, 29 August 2021

मन पंछी

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

झूले कैसे, गगन का ये झूला,
भरे, पेंग कैसे, 
पड़ा, तन्हा अकेला,
तन्हाईयाँ, वो आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

बरबस, खींच लाए, वो साए,
देखे, भरमाए,
करे, कोरी कल्पना,
भरे रंग, वो मन शाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

भटके ना, कहीं डाली-डाली,
भूले ना, राह,
चाहतों का, गाँव,
वियावानों में, आबाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे!

रंग सारे, यूँ बिखरे गगन पर,
रंगी, ये नजारे,
भाए ना, रंग कोई,
ना ही, दूजा फरियाद करे!

ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
इस गगन से, 
उन्हें, कैसे आजाद करे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

10 comments:


  1. ये मन पंछी, उन्हें ही याद करे,
    इस गगन से,
    उन्हें, कैसे आजाद करे!
    ....सही कहा आपने,जिन्हें हम अपने गगन रूपी विस्तृत मन में जगह देते हैं, उन्हें कैसे विस्मृत कर सकते हैं।सुंदर भावपूर्ण सृजन।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(३०-०८-२०२१) को
    'जन्मे कन्हैया'(चर्चा अंक- ४१७२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. मन एक पंछी और यादें एक पिंजरा।
    अजीब पंछी है जो पिंजरे से मुक्ति नहीं चाहता।
    मन में बसी स्मृतियों को सुंदर शब्दों में निरूपित किया है।

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  4. यादों से कैद मांगी जाती है रिहाई नहीं । यही तो जिंदगी का लुत्फ है । उम्दा लेखन ।

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  5. बहुत सुंदर सृजन, मन पंछी तो बस ऐसा ही होता है , उन्मुक्त स्वयं में मस्त।

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