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Saturday, 22 September 2018

अपरिचित

ओ अपरिचित, अपना कुछ परिचय ही दे जाओ....

विस्मित हूँ निरख कर मैं वो स्मित,
बार-बार निरखूं, मैं इक वो ही अपरिचित,
हिय हर जाओ, चित मेरा ले जाओ,
विस्मित फिर से कर जाओ...

ओ अपरिचित, अपना कुछ परिचय ही दे जाओ....

हो कौन तुम? क्यूँ ऐसे मौन तुम?
पा लूं परिचय, कुछ बोलो तो अपरिचित,
संवाद करो, कुछ अपनी बात कहो,
आसक्त मुझे फिर कर जाओ....

ओ अपरिचित, अपना कुछ परिचय ही दे जाओ....

उद्दीप्त हुए, इस मन में दीप कई,
दीपक का उद्दीपन, तुमसे है अपरिचित,
प्रकाश भरो, तम इस रात के हरो,
असंख्य दीप फिर ले आओ.....

ओ अपरिचित, अपना कुछ परिचय ही दे जाओ....

Monday, 24 July 2017

आसक्ति

आसक्त होकर निहारता हूँ मैं वो खुला सा आकाश!

अनंत सीमाओं में स्वयं बंधी,
अपनी ही अभिलाषाओं में रमी,
पल-पल रूप अनंत बदलती,
कभी निराशाओं के काले घनघोर घन,
सन्नाटों में कभी घन की आहट,
वायु सा कभी प्रतिपल तेज चरण,
कभी साए सी चुपचाप, प्रतिविम्ब सी मौन....

आसक्त होकर निहारता हूँ मैं वो खुला सा आकाश!

विशाल भुजपाश में जकड़ी,
व्याकुल मन सी दौड़ती वो हिरणी,
कभी ब्रम्हांड में हुंकार भरती,
वेदनाओं मे क्रंदन करती वो दामिणी,
कभी आँसूओं में करती क्रंदन,
या कभी सन्नाटों के क्षण, आँसुओं के मौन...

आसक्त होकर फिर निहारता हूँ मैं वो खुला आकाश!
जहाँ....
मुक्त पंख लिए नभ में उड़ते वे उन्मुक्त पंछी,
मानो क्षण भर में पाना चाहते हो वो पूरा आकाश...