यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...
छोड़ कर यादें, वो तो तन्हा चला,
तोड़ कर अपने वादे, यूँ कहाँ वो चला,
तन्हाइयों का, ये है सिलसिला,
यूँ इस सफर में, तन्हा न था चलना मुझे!
यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...
कली थी, अभी ही तो खिली थी!
सजन के बाग की, मिश्री की डली थी!
था अपना वही, एक सपना वही,
यूँ न बाहों से उनकी, था निकलना मुझे!
यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...
गुजर चुके अब, सपनों के दिन,
अब गुजरेंगे कैसे, वक्त अपनों के बिन,
न था वास्ता, तंज लम्हों से मेरा,
यूँ तंग राह में अकेले, न था गुजरना मुझे!
यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
छोड़ कर यादें, वो तो तन्हा चला,
तोड़ कर अपने वादे, यूँ कहाँ वो चला,
तन्हाइयों का, ये है सिलसिला,
यूँ इस सफर में, तन्हा न था चलना मुझे!
यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...
कली थी, अभी ही तो खिली थी!
सजन के बाग की, मिश्री की डली थी!
था अपना वही, एक सपना वही,
यूँ न बाहों से उनकी, था निकलना मुझे!
यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...
गुजर चुके अब, सपनों के दिन,
अब गुजरेंगे कैसे, वक्त अपनों के बिन,
न था वास्ता, तंज लम्हों से मेरा,
यूँ तंग राह में अकेले, न था गुजरना मुझे!
यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
बहुत सुन्दर रचना आदरणीय
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया आभार ।
Delete