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Monday, 14 January 2019

कैसे ना तारीफ करें

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

बासंती रंग, हवाओं में बिखरे,
पीली सरसों, जब खेतों में निखरे,
कहीं पेड़ों पर, कोयल कूक भरे,
रिमझिम बूंदें, घटाओं से गिरे!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

मुस्काए कोई, हलके-हलके,
सर से उनके, जब आँचल ढ़लके,
बातें जैसे, कोई मदिरा छलके,
वो कदम रखें, बहके-बहके!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

तारीफ के हो, कोई काबिल,
लफ्जों में हो, किन्हीं के बिस्मिल,
आँखों मे हो , तारे झिलमिल,
बातों में हो, हरदम शामिल!

कह दे कोई! कैसे ना तारीफ करें....

Tuesday, 7 June 2016

निरापद कोई नहीं

ना, निरापद यहाँ इस जगत में कोई नही..........

वो पात्र प्रशंसा का भले ही हो या न हो,
उपलब्धियाँ भले ही जीवन की उनकी नगन्य हों,
मान्यताओं के विपरीत भले ही उसके कर्म हो,
भूखा है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

अन्तः अवलोकन से खुद ही वो क्षुब्ध हो,
आलोचना मन ही मन खुद अपनी ही करता हो,
निन्दा दिन रात अच्छों-अच्छों की करता हो,
जीता है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

ना, निरापद कोई नहीं है इस जगत में,
न तुम, न मैं, न वे जो कहलाते योगी शिखर के,
सबके पीछे बंधी है इच्छाएँ बस आसक्ति की,
मरता है हर कोई अपनी प्रशंसा के लिए।

प्रशंसा के आनन्द का छंद ऐसा ही तो है,
तारीफों की झूठी पुल पर वो चलता ही जाता है,
मन ही मन कमियों पर खुद की पछताता है,
निभाता वो मानव धर्म अपनी प्रशंसा के लिए।

ना, निरापद कोई नही यहाँ इस जगत में ..........

Wednesday, 6 April 2016

कल मिले ना मिले

 
दरमियाँ जीवन के इन वयस्त क्षणों के,
स्वच्छंद फुर्सत के एहसास भी हैं जरूरी! ..सही है ना?

दरमियाँ इन धड़कते दिलों के,
धड़कनों के एहतराम भी हैं जरूरी !
कही खो न जाएँ यहीं पे हम,
खुद से खुद का पैगाम भी है जरूरी!

तुम सितारों मे घुमती ही रहो,
नजरों से जमीं का दीदार भी है जरूरी!
आईने मे खुद का दीदार कर लो,
तारीफ चेहरे को गैरों की भी है जरूरी!

जिन्दगी में कितना ही सफल हो,
खुशी पर अपनों की खुशी भी है जरूरी!
जिन्दगी में तुम मिलो न मिलो,
मिलते रहने की कशिश भी है जरूरी!

मौसमों की तरह रंग बदल लो,
मौसम रिमझिम फुहार के भी हैं जरूरी!
कल वक्त ये फिर मिले ना मिले,
आज जी भर के जी लेना भी है जरूरी!

दरमियाँ जीवन के इन वयस्त क्षणों के,
स्वच्छंद फुर्सत के एहसास भी हैं जरूरी! ..सही है ना?

Tuesday, 15 March 2016

कौन हो तुम?

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

किसी कलाकार की कल्पनाओं का वजूद हो तुम,
या किसी गीतकार की गजलों भरी रचना का रूप
सायों में जो ढ़लती रही देर तलक तुम हो वही धूप,
चाहतों की सुबह हो या तबस्सुम लिए शाम हो तुम।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

तुम कल्पना हो किसी शिल्पकार के शिल्पकला की,
इक अद्वितीय संरचना हो शिल्पकला के विधाओं की,
तराशा हुआ संगमरमर हो शिल्पी के कुशल हाथों की,
या धरोहर अनमोल हो तुम शिल्पकृत्य के बाजीगरी की।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

तुम मोहक तस्वीर हो किसी चित्रकार के खयालों की,
चटक तावीर हो रंगों मे रंगी किसी मोहिनी मनमूरत की,
अनदेखा सा सपना हो तुम चित्रकार के कल्पनाओं की,
या चित्रकारिता बेमिसाल हो तुम कुदरत के कारीगरी की।

कौन हो तुम? कुछ तो बोलो ना! राज जरा सा खोलो ना!

Thursday, 4 February 2016

दो नैन

चंद अल्फाज निकल गए तारीफ में आपकी,
 मचले हैं शबनमी लहर सुर्ख होठों पे आपकी,
शुरूर बन के छा गई नूर-ए-चांदनी हर तरफ,
बदल गई है रुत की मस्त रवानियाँ हर तरफ।

शर्मों हया का परदा उतरा है चाँदनी की नूर से,
बेखबर मचल रहे यूँ जज्बात दिलों की तीर से,
चाहुँ चुरा लूँ चँद शबनम बंद होठों से आपकी,
देखता रहूँ झुकी पलकों में ढ़ली हया आपकी।

आँखें दे गईं हैं अब पयाम जिन्दगी की नूर के,
कजरारे नैन बरबस तक रहे आस में हुजूर के,
तारीफ करता रहूँ मैं इन दो नैनों की आपकी,
उम्र मै गुजार दूँ तकते इन दो नैनों मे आपकी।