स्याह रातों की खामोशी को स्वर दे गया वो फिर,
कोलाहल मची सृष्टि में, उसके स्वागत को फिर।
खामोश सृष्टि लगी विहसने सुन जन-जन के गान,
पंछियों ने कलरव कर छे़ड़ दिए है सप्ससुरी तान।
वो कौन रात्रि मे कुंजपत्तियों को बूंदों से धो गया,
स्वागत की तैयारी मे वसुधा को नव रूप दे गया।
पूर्ण सृष्टि का श्रृंगार करने सूर्य क्षितिज पर आया,
स्वर्निम आभा से अपनी मनभावन रंग बिखेर गया।
नभ के चेहरे मले गुलाल, गिरि मस्तक भी मधुमायी,
सागर जल हुए स्वर्निम, प्रकृति नव वधु सी मुस्काई।
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