मृदु थे तुम, तो कितने मुखर थे,
मंद थे, तो भी प्रखर थे,
समय के सहतीर पर, वक्त के प्राचीर पर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?
उठाए शीष इतना, खड़े हो दूर क्यूँ?
कोई झूलती सी, शाख हो, तो झूल जाऊँ,खुद को तुझ तक, खींच भी लाऊँ,
मगर, कैसे पास आऊँ!
खो चुके हो, वो मूल आकर्षण,
सादगी का, वो बांकपन,
जैसे बेजान हो चले रंग, इन मौसमों संग,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?
तू तो इक खत, मृत्यु, सत्य शाश्वत,
जाने इक दिन किधर, पहुँचाए जीवन रथ,
तेरे ही पद-चिन्हों से, बनेंगे पथ,
लिख, संस्कारों के खत!
शायद, भूले हो, खुद में ही तुम,
मंद सरगम, को भी सुन,
संग-संग, बज उठते हैं जो, तेरे ही धुन पर,
अन्जाने से हो, इतने तुम क्यूँ?
प्रहर के रार पर, सांझ के द्वार पर,
सफलताओं के तिलिस्मी, इस पहाड़ पर,
रख नियंत्रण, उभरते खुमार पर,
इस, खुदी को मार कर!
फूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
बंद थे, तो भी प्रखर थे,
विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
फूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
ReplyDeleteबंद थे, तो भी प्रखर थे,
विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?.... बहुत सुंदर रचना
आभार आदरणीया
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 27 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२७-0६-२०२१) को
'सुनो चाँदनी की धुन'(चर्चा अंक- ४१०८ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
विनम्र आभार आदरणीय नसवा जी
Deleteमृदु थे तुम, तो कितने मुखर थे,
ReplyDeleteमंद थे, तो भी प्रखर थे,
समय के सहतीर पर, वक्त के प्राचीर पर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?
बहुत सुंदर बहुत कोमल कविता...🙏
विनम्र आभार आदरणीया। ।।।
Deleteगहन भाव लिए सुंदर भावाभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteसुंदर अनुभूतियों का सृजन।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteखो चुके हो, वो मूल आकर्षण,
ReplyDeleteसादगी का, वो बांकपन,
जैसे बेजान हो चले रंग, इन मौसमों संग,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?---बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां हैं...वाह
विनम्र आभार आदरणीय
Deleteसुंदर सृजन
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुन्दर सृजन
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteसंवेदनाओं को समेटे हृदय स्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteबहुत सुंदर पुरुषोत्तम जी।
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteबहुत बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर।
ReplyDeleteभाव शब्दों में छलक पड़े।
हार्दिक बधाई आपको ।
सादर
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteतू तो इक खत, मृत्यु, सत्य शाश्वत,
ReplyDeleteजाने इक दिन किधर, पहुँचाए जीवन रथ,
तेरे ही पद-चिन्हों से, बनेंगे पथ,
लिख, संस्कारों के खत!
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर, हृदयस्पर्शी सृजन।
बहुत सुंदर ,भावनाओं का प्रवाह छलक उठा है
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय
Deleteकौन कब कहाँ बदल जाए आदरणीय कविवर कोई कह नहीं सकता | आपके मासूम प्रश्न मन को छू गये |
ReplyDeleteफूल थे तुम, तो बड़े मुखर थे,
बंद थे, तो भी प्रखर थे,
विहँसते थे खिल कर, हवाओं में घुल कर,
बदल चुके हो, इतने तुम क्यूँ?
सुंदर अभिव्यक्ति |
अभिनन्दन व विनम्र आभार आदरणीया रेणु जी।
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