Showing posts with label विकर्षण. Show all posts
Showing posts with label विकर्षण. Show all posts

Tuesday, 3 November 2020

निर्मम, जाने न मर्म!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

ढ़ँक लूँ, भला कैसे ये घायल सा तन!
ओढूं भला कैसे, कोई आवरण!
दिए बिन, निराकरण!
टटोले बिना, टूटा सा अंतः करण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

हो चले थे सर्द, पहले ही एहसास सारे!
चुभोती न थी, काँटों सी चुभन!
दुश्वार कितने, हैं क्षण!
जाने बिना, पल के सारे विकर्षण,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्मम, जाने न मर्म......

गर, सुन लेते मन की, तो आते न तुम!
दर्द में सिहरन, यूँ बढ़ाते न तुम!
दे गई पीड़, तेरी छुअन!
सर्द आहों में भर के, सारे ही गम,
ले आए हो, ठिठुरण!

निर्दयी बड़ी, सर्द सी ये पवन?
निर्मम, जाने न मर्म!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 7 July 2020

फासले

निष्क्रिय से हैैं, आकर्षण,
विलक्षणताओं से भरे वो क्षण,
गुम हैं कहीं!

सहज हों कैसे, विकर्षण के ये क्षण!
ये दिल, मानता नहीं,
कि, हो चले हैं, वो अजनबी,
वही है, दूरियाँ,
बस, प्रभावी से हैं फासले!

यूँ ही, हो चले, तमाम वादे खोखले!
गुजरना था, किधर!
पर जाने किधर, हम थे चले,
वही है, रास्ते,
पर, मंजिलों से है फासले!

हर सांझ, बहक उठते थे, जो कदम,
बहके हैं, आज भी,
टूटे हैं प्यालों संग, साज भी,
वहीं है, सितारे,
बस, गगन से हैं फासले!

मध्य सितारों के, छुपे अरमान सारे,
उन बिन, बे-सहारे,
चल, अरमान सारे पाल लें,
सब तो हैं वहीं,
यूँ सताने लगे हैं फासले!

निष्क्रिय से हैैं, आकर्षण,
विलक्षणताओं से भरे वो क्षण,
गुम हैं कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)