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Sunday, 7 August 2022

कोरी कल्पना


रहना हो, तो ‌‌‌‌‌‌‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
और, रोज मिलना!

चल देते हो, तुम, ऐसे,
जैसे, दिन ढ़ले, ढ़ल जाते हैं असंख्य तारे,
खुल जाते हैं, आकाश के, दो किनारे,
यूं ठहरते हो, कब!

ठहर जाओ कुछ ऐसे,
जैसे, गहराते हैं, मेंहदी के रंग, हौले-हौले,
बहती ये नदियाँ, ज्यूं, सागर को छूले,
और, निखर जाए!

सब दरवाजे, हैं खुले,
रिक्त सारे, कल्पनाओं के ये उन्मुक्त झूले,
खाली सा, आकाश का सारा दामन,
जरा, सँवर जाए!

रहना हो, तो ‌रह जाना,
मेरी स्वप्निल कल्पनाओं के, उन्मुक्त आकाश में,
क्या, रह सकोगे सदा?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 23 July 2022

अनमनस्क तरंगें


ना गिन पाऊँ, अनमनस्क, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे कौन रंगे!

बीते कई दिन, बस यूँ ही, अनमने से,
अर्ध-स्वप्न सी, बीती रातें कई,
मलता रहा नैन, बस यूँ ही, जागा-जागा,
दूर, जीवन कहीं, रंगों से भागा,
फीकी सी, सब उमंगें!

ना गिन पाऊँ, अनमनस्क, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे कौन रंगे!

बही प्रतिकूल, यूँ ही, ये चंचल हवाएँ,
छू ले, कभी, यूँ नाहक जगाए,
अनमनस्क लग रहे, नदी के ये किनारे,
दूर, बहते रहे, अनवरत वो धारे,
बहा गई, सारी उमंगे!

ना गिन पाऊँ, अनमनस्क, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे कौन रंगे!

शायद, बहने लगे, पवन हौले-हौले,
मन को मेरे, कोई यूँ ही छू ले!
शून्य क्यूँ है इतना, कोई आए टटोले!
दूर, क्षितिज पर, फिर से बिखेरे,
वो ही, सतरंगी उमंगे!

ना गिन पाऊँ, अनमनस्क, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे कौन रंगे!