Sunday, 21 March 2021

बैरागी

यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!

चुभते हैं, ये छंद तेरे,
ज्यूँ शब्दों के, हैं तीर चले,
ना ये, बाण चला,
ठहर जरा!

तुम हो, इक बैरागी,
क्या जानो, ये पीड़ पराई,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!

है वश में, मन तेरा,
विवश बड़ा, ये मन मेरा,
ना ये, राग सुना,
ठहर जरा!

तू क्यूँ, नमक भरे,
हरे भरे, हैं ये जख्म मेरे,
यूँ ना, दर्द जगा,
ठहर जरा!

बैरागी, क्या जाने,
जो गम से खुद अंजाने,
झूठा, बैराग तेरा,
ठहर जरा!

मुँह, फेर चले हो,
सारे सच, भूल चले हो,
सत्य, यह कड़वा,
ठहर जरा!

तुम मन, तोड़ गए,
रिश्तो के घन छोड़ गए,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!

यूँ साध न मतलब,
कब से रूठा, मेरा रब,
यूँ न, आस जगा,
ठहर जरा!

यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

14 comments:

  1. अतिसुंदर रचना बैरागी जी बधाई आपको आदरणीय

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    1. विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....

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  2. आपकी लिखी कोई रचना सोमवार 22 मार्च 2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....

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  3. इस कविता को पढ़ने फिर आऊँगी ।

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    1. विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....

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  4. वीतरागी मन का विरह राग पुरुषोत्तम जी। आपकी लेखनी के स्पर्श से सृजन की सार्थकता बेमिसाल हो जाती है। हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏


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    1. विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....

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  5. बहुत सुन्दर गीत।
    भावों की गहन अभिव्यक्ति।

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  6. ये वीतराग है या मन कि पीड़ा को कह देने के लिए बैरागी माध्यम बना है .... जो भी है आप अपनी बात कहने में पूर्णतया सफल हुए हैं .
    बहुत सुन्दर और भावों से भरपूर रचना ...

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