यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!
चुभते हैं, ये छंद तेरे,
ज्यूँ शब्दों के, हैं तीर चले,
ना ये, बाण चला,
ठहर जरा!
तुम हो, इक बैरागी,
क्या जानो, ये पीड़ पराई,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!
है वश में, मन तेरा,
विवश बड़ा, ये मन मेरा,
ना ये, राग सुना,
ठहर जरा!
तू क्यूँ, नमक भरे,
हरे भरे, हैं ये जख्म मेरे,
यूँ ना, दर्द जगा,
ठहर जरा!
बैरागी, क्या जाने,
जो गम से खुद अंजाने,
झूठा, बैराग तेरा,
ठहर जरा!
मुँह, फेर चले हो,
सारे सच, भूल चले हो,
सत्य, यह कड़वा,
ठहर जरा!
तुम मन, तोड़ गए,
रिश्तो के घन छोड़ गए,
ना ये, पीड़ बढ़ा,
ठहर जरा!
यूँ साध न मतलब,
कब से रूठा, मेरा रब,
यूँ न, आस जगा,
ठहर जरा!
यूँ गीत न गा, ऐ बैरागी,
ठहर जरा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
अतिसुंदर रचना बैरागी जी बधाई आपको आदरणीय
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteआपकी लिखी कोई रचना सोमवार 22 मार्च 2021 को साझा की गई है ,
ReplyDeleteपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
विनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteइस कविता को पढ़ने फिर आऊँगी ।
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteवीतरागी मन का विरह राग पुरुषोत्तम जी। आपकी लेखनी के स्पर्श से सृजन की सार्थकता बेमिसाल हो जाती है। हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏
ReplyDeleteविनम्र आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद....
Deleteबहुत सुन्दर गीत।
ReplyDeleteभावों की गहन अभिव्यक्ति।
विनम्र आभार आदरणीय...
Deleteये वीतराग है या मन कि पीड़ा को कह देने के लिए बैरागी माध्यम बना है .... जो भी है आप अपनी बात कहने में पूर्णतया सफल हुए हैं .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावों से भरपूर रचना ...
पुनः आभार आदरणीया संगीता जी।।।।
Deleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteविनम्र आभार,आदरणीया ....
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