यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!
भारी थी इक-इक साँसें, मुस्काते वो कैसे,
मुरझाए चेहरों को, भा जाते वो कैसे,
पर, फिर जीवन की, इक उम्मीद जगी थी,
आशाओं की, इक डोर बंधी थी,
फाल्गुनी, एहसासों नें ही कुछ किया...
यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!
फीके से पल सारे, गहरे रंगों में डूब चले,
मन को, पुरवैय्यों के झौंके, लूट चले,
ये चैती बयार, मुस्काती, कुछ यूँ आई थी,
आशाओं के, कुछ पल ले आई थी,
जिन्दा, एहसासों को उसने ही किया...
यूँ हुआ, जैसे इस होली, रंगों नें छू लिया!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत सुंदर रचना बधाई हो आपको आदरणीय
ReplyDeleteआभार आदरणीया
Deleteफीके से पल सारे, गहरे रंगों में डूब चले,
ReplyDeleteमन को, पुरवैय्यों के झौंके, लूट चले,
यानि कि इस बार होली तो आपकी हो ली .. बहुत खूब ..
जी, बिल्कुल। कैद पलों को कुछ आजादी मिल पाई थी, वीरानों में गूंजी इक शहनाई थी,
Deleteरंग लिए, मुक्तकंठ होली जो आई थी....
आभार आदरणीया। ।।।
अनुपम रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया भारती जी।
Deleteवाह कविवर ! प्रेमानुरागी मन का उन्मुक्त प्रीत राग | होली के रंगों में डूबे तो कोई इस तरह | सादर
ReplyDeleteविनम्र आभार, बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया रेणु जी।
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