बड़ा ही, खुशमिजाज शहर था मेरा,
पर बड़ा ही खामोश,
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!
कल चमक उठती थी, ये आँखें,
इक उल्लास लिए,
आज फिरती हैं, ये आँखे,
अपनी ही, लाश लिए,
किन अंधेरों में, जा छुपा है सवेरा!
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!
धड़कनें थी, कोई उम्मीद लिए,
कितने संगीत लिए,
अब थम सी गई, हैं साँसें,
विरहा के, गीत लिए,
जाते लम्हों में कहाँ, विश्वास मेरा!
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!
मिल कर, चह-चहाते थे ये लब,
रुकते थे, ये कब,
आज, भूल बैठे हैं ये सब,
बेकरारी का, ये सबब,
ये तन्हाई, ले न ले ये जान मेरा!
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!
न जाने, फिर, वो सहर कब हो!
वो शहर, कब हो!
छाँव वाली, पहर कब हो!
मेरे सपनों का वो घर,
यूँ ही न उजड़े, ये अरमान मेरा!
बड़ा ही, खुशमिजाज शहर था मेरा,
पर बड़ा ही खामोश,
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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# कोरोना
मिल कर, चह-चहाते थे ये लब,
ReplyDeleteरुकते थे, ये कब,
आज, भूल बैठे हैं ये सब,
बेकरारी का, ये सबब,
ये तन्हाई, जान ले ले ना ये मेरा!
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!
न जाने, फिर, वो सहर कब हो...दिल को छूती हुई रचना
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteहृदयस्पर्शी।
ReplyDeleteजल्द ही सब ठीक होगा। खत्म होगी खामोशी, गुमशुम से घर में फिर से चहल पहल होगी। माना रात है पर इसके बाद ही तो सुबह होनी है।
शुक्रिया शिवम जी।
Deleteघर घर का यही हाल ।।सार्थक रचना ।
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया संगीता स्वरुप जी
Deleteभावों की भाव भरी अभिव्यक्ति,जल्द ही अंधेरा छंटेगा और भोर होगी । आपको मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteजी ऐसा ही हो।
Deleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया जिज्ञासा जी।