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Friday, 2 April 2021

फितरत

फिर उनकी ही बातें, करते मर जाने पर, 
जीते जी, जो तरसे तारीफें सुनने को!

फितरत है, ये तो इन्सानों की,
मुरझा जाने पर, करते है बातें फूलों की, 
पतझड़ हो, तो हो बातें झूलों की,
उम्र भर, हो चर्चा भूलों की!

सध जाए मतलब, तो वो रब,
कौन किसी से, मिलता है, बिन मतलब,
फिकर बड़ी, इन झूठे रिश्तों की,
फिकर किसे, है अपनों की!

एक भूल, कभी, होती भारी,
कभी अवगुण लाख, पर चलती यारी,
निभती, स्वार्थ-परक तथ्यों की,
परवाह किसे, कुकृत्यों की!

फितरत है, ये ही इन्सानों की,
अपनों से अलग, तारीफें बेगानों की,
बे-रस्म बड़े, पर बातें रस्मों की,
भान कहाँ भूले कसमों की!

फिर उनकी ही बातें, करते मर जाने पर, 
जीते जी, जो तरसे तारीफें सुनने को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 25 May 2016

साहिलों पे कहीं

लिखते रहे जिन्दगी की किताब सूखी साहिलों पे कहीं...

डोलती सी इक पतवार की तरह,
दूर खोए कहीं अपनी साहिल से वो थे,
उनकी फितरत तो थी टूटते एतवार की तरह,
वो साहिल के कभी तलबगार ही न थे।

मैं किताबों में बंद कहानी सा खोया साहिलों पे कहीं...

वो भँवर में रहे डूबते मौजों की तरह,
कहीं बेखबर जिन्दगी की कहानी से वो थे,
उनकी चाहत तो रही डूबते इन्तजार की तरह,
वो साहिलों के कहीं मुकाबिल ही न थे।

बिखरा है ये जीवन इन्तजार में उसी साहिलों पे कहीं...