फितरत है, ये तो इन्सानों की,
मुरझा जाने पर, करते है बातें फूलों की,
पतझड़ हो, तो हो बातें झूलों की,
उम्र भर, हो चर्चा भूलों की!
सध जाए मतलब, तो वो रब,
कौन किसी से, मिलता है, बिन मतलब,
फिकर बड़ी, इन झूठे रिश्तों की,
फिकर किसे, है अपनों की!
एक भूल, कभी, होती भारी,
कभी अवगुण लाख, पर चलती यारी,
निभती, स्वार्थ-परक तथ्यों की,
परवाह किसे, कुकृत्यों की!
फितरत है, ये ही इन्सानों की,
अपनों से अलग, तारीफें बेगानों की,
बे-रस्म बड़े, पर बातें रस्मों की,
भान कहाँ भूले कसमों की!
फिर उनकी ही बातें, करते मर जाने पर,
जीते जी, जो तरसे तारीफें सुनने को!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)