खोया हूँ, तेरी ही विस्मृति के, आंगण में,
बंधा हूँ, नभ के भीगे से, उस घन में,
शायद, उभर जाऊँ सावन में!
मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!
त्यक्त हूँ, विडंबनाओं के, फैले प्रांगण से,
मुक्त हूँ, भावनाओं के हर बंधन से,
शायद, व्यक्त कभी हो आऊँ!
मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!
बीता कल हूँ, अक्स, तुम्हारा ही हैं इनमें,
इक छल हूँ, प्राण हमारा है जिनमें,
शायद, विस्मृति में रह जाऊँ!
मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!
कल ना रहूँ, रह जाएंगी मेरी ये विस्मृति,
मैं ना कहूँ, कहने आएंगी विस्मृति,
शायद, याद कभी आ जाऊँ!
मुझे क्या!
भूला सा, हूँ मैं इक पल,
या, इक छल,
जैसे, ठोस लगे कोई जल!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
कल ना रहूँ, रह जाएंगी मेरी ये विस्मृति,
ReplyDeleteमैं ना कहूँ, कहने आएंगी विस्मृति,
शायद, याद कभी आ जाऊँ , बहुत खूब
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (6 -6-21) को "...क्योंकि वन्य जीव श्वेत पत्र जारी नहीं कर सकते"(चर्चा अंक- 4088) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय
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ReplyDelete😊
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन सर।
ReplyDeleteसादर
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteआदरणीय आपकी रचनाओं को पढ़ कर बहुत ही लगता है । आपकी रचना का प्रत्येक शब्द बहुत ही भावुक एवं अर्थपूर्ण होता है जो कि सीधे सीधे दिल की गहराइयों में उतर जाता है
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
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ReplyDeleteकल ना रहूँ, रह जाएंगी मेरी ये विस्मृति,
मैं ना कहूँ, कहने आएंगी विस्मृति,
शायद, याद कभी आ जाऊँ!.. सुन्दर एहसासों में डुबोती उत्कृष्ट रचना।
विनम्र आभार आदरणीया
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