Tuesday 15 October 2019

जीवन किनारे

यूँ हीं छूट जाते है, स॔गी-साथी, ये सहारे,
हाथ हमारे, जीवन किनारे!

संदली सांझ के, ये हल्के से साये,
हो जाती हैं ओझल, रंगीन सी वो राहें,
गुजर जाती हैं, निर्बाध ये डगर,
धुँधलाती सी, बढ़ जाती है ये सफर,
एकाकी से होते, एक पथ पर,
उलझी सी, अलकों,
सुनी सी, पलकों के सहारे,
जीवन किनारे!

थम जाती है ज्यूँ, सागर में नदियाँ,
यूँ थम जाती है, यौवन की साँसें यहाँ,
रोक कर, चंचल सी ये प्रवाह,
चल देती है जीवन, अपनी ही राह,
बे-खबर, बे-असर, बे-परवाह,
हो, इच्छाओं से मुक्त,
छोड़कर, अनन्त कामनाएँ,
जीवन किनारे!

अंग-अंग पर, उभरती हैं झुर्रियाँ,
ठूंठ होते हैं वृक्ष, यूँ डूबती हैं कश्तियाँ,
उम्र भर, किसने दिया है साथ?
सूख कर, झर जाते है पात-पात,
जगाती है, नैनों में तैरती रात,
काटती है, ये रौशनी,
नश्तर चुभोते है, ये तन्हाई,
जीवन किनारे!

यूँ हीं छूट जाते है, स॔गी-साथी, ये सहारे,
हाथ हमारे, जीवन किनारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 13 October 2019

आत्मविस्मृति

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

समृद्ध संस्कृति, सुसंस्कृत व्यवहार,
प्रबुद्ध प्रवृत्ति, सद्गुण, सद्-विवेक, सदाचार,
हो चले हैं काल-कवलित, ये सारे संदर्भ,
यूँ घेर रहे है मुझको, अब मेरे ही दर्प,
बतला दे, वो ही पुरखों की बातें!

ओ! विस्मृत सी यादें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

भरमाया हूँ, तुझको ही भूला हूँ मैं,
सम्मुख हैं पंख पसारे, विस्तृत सा आकाश,
छद्म सीमाओं में, इनकी ही उलझा हूँ मैं,
नव-कल्पनाओं का, दिला कर भास,
मंथन कर, अपनी याद दिला दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

उलझाए हैं, दिशाहीन सी ये राहें,
सपनों से आगे, दूर कहीं ये मन जाना चाहे,
भटका हूँ, इक उलझन में, दोराहे पर मैं,
तू यूँ तो ना उलझा, सोए विवेक जगा,
हाथ पकड़, कोई राह दिखा दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!

संग तुम थे, तो चाहत थी जिन्दा,
दूर हुए तुम जब से, हम खुद से हैं शर्मिन्दा,
हूँ सद्गुण से विरक्त, पीछे छूटा कर्म पथ,
विरासत अपनी ही, भूल चुका हूँ मैं,
संस्कार मेरे, मुझको लौटा दे!

ओ! विस्मृत सी बातें, विस्तृत हो, पर फैला दे!
___________________________________
आत्मविस्मृति
[सं-स्त्री.] - अपने को भूल जाना; किसी फँसाव के चलते ख़ुद का ध्यान न रखना; बेख़ुदी।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 12 October 2019

नदी किनारे

डूब कर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

एक विरोधाभास, दो मनोभाव,
एक निरंतर बहती नदी, दो प्रभाव,
इच्छाओं से, जिजीविषा तक!
दो विपरीत कामनाएं, एक ही फैलाव,
सिमट आते हैं सारे, नदी किनारे!

जीवित है, धूल में इक आशा,
कभी तो, रीत जाएगी वो जरा सा,
नदी, खुद आएगी उस तक!
फूल सा, खिल जाएगी वो भीग कर!
धूप सहती है धूल, नदी किनारे!

सुदूर पड़ी, वो धूल हैं आकुल,
सदियों से, मन उनके हैं व्याकुल,
नदी, कब आएगी उस तक?
कब फूल, बन पाएंगी वो खिल कर?
पछताती वो धूल, नदी किनारे!

आश-निराश के, ये दो कण,
तृप्ति-अतृप्ति के, वो मौन क्षण,
पसरा, नदी का वो आँचल,
खामोश बहती, कल-कल सी जल,
चुप-चुप हैं सारे, नदी किनारे!

डूबकर खिलते हैं, कुछ फूल, नदी किनारे,
सूख कर बिखरते हैं धूल, नदी किनारे।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday 11 October 2019

अवगीत मेरे ही

बजती हैं धड़कन में तेरे, अवगीत मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

सुरहीन मेरे गीतों को, जब तुम गाते हो,
मन वीणा संग, यूँ सुर में दोहराते हो,
छलक उठते हैं, फिर ये नैन मेरे।
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

सूने इस मन में, बज उठते हैं साज कई,
तन्हाई देने लगती है, आवाज कोई,
यूँ दूर चले जाते हैं, अवसाद मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

गा उठते हैं संग, क्षोभ-विक्षोभ के क्षण,
नृत्य-नाद करते हैं, अवसादों के कण,
अनुनाद कर उठते हैं, तान मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

अवगीतों पर मेरे, तूने छनकाए पायल,
गाए हैं रुन-झुन, आंगन के हर पल,
झंकृत हुए है संग, एकान्त मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

बजती हैं धड़कन में तेरे, अवगीत मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 9 October 2019

सहचर

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

छोड़ दे ये दामन, अब तोड़ न मेरा मन,
पग के छाले, पहले से हैं क्या कम?
मुख मोड़, चला था मैं तुझसे,
रिश्ते-नाते सारे, तोड़ चुका मैं तुझसे!
पीछा छोर, तु अपनी राह निकल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

माना, था इक रिश्ता सहचर का अपना,
शर्तो पर अनुबन्ध, बना था अपना!
लेकिन, छला गया हूँ, मैं तुझसे,
दुःख मेरी अब, बनती ही नही तुझसे!
अनुबंधों से परे, है तेरा ये छल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

चुभोए हैं काँटे, पग-पग पाँवों में तुमने,
गम ही तो बाँटे, हैं इन राहों में तूने!
सखा धर्म, निभा है कब तुझसे?
दिखा एक पल भी, रहम कहाँ तुझमें?
इक पल न तू, दे पाएगा संबल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

ये दर्द बेइन्तहा, सदियों तक तूने दिया,
बगैर दुःख, मैंनें जीवन कब जिया?
तू भी तो, पलता ही रहा मुझसे!
फिर भी छल, तू करता ही रहा मुझसे!
अब और न कर, मुझ संग छल!

संग-संग न चल, ऐ मेरे दुःख के पल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 8 October 2019

रावण दहन

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

अगणित रावण, दहन किए आजीवन,
मनाई विजयादशमी, जब हुआ लंका दहन,
उल्लास हुआ, हर्षोल्लास हुआ,
मरा नहीं, फिर भी रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

हर वर्ष, नया स्वरूप धर आया रावण,
कर अट्टहास, करता मानवता पर परिहास,
कर नैतिक मूल्यों का, सर्वनाश,
अन्तःमन, ही बैठा रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

बदला चित्र, चरित्र ना बदला रावण,
बना एकानन, खुले आम घूमते हैं दशानन,
घृणित दुष्कर्म, करते ये ही जन,
विभत्स, कर्मों के ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

आज फिर, अट्टहास कर रहा रावण,
मन ही मन, मानवता पर हँस रहा रावण,
गुलाम है सब, मेरे ही आजीवन,
दंभ यही, भर रहा ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

लाख करो इनकी, प्रतीक का शमन,
चाहे अनंत बार करो, इस पुतले का दहन,
शमन न होंगे, ये वैचारिक रावण,
दंभ और दर्प, वाले ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

मन ही जननी, मन दुःख का कारण,
मार सकें गर, तो मारें अपने मन का रावण,
जीत सकें गर, तो जीत ले मन,
शायद, मर जाएंगे ये रावण!

मारो एक, तो दस पैदा होते हैं रावण!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 7 October 2019

भग्नावशेष

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

आधी राह आखिर, क्यूँ थका है मुसाफिर?
सफर के उस छोड़ तक, है जाना तुझे मुसाफिर,
परवाह करता है क्यूँ, छूटे हुए उस मोड़ की,
तु सुन ले जरा, बातें हृदय के बंद कोर की,
इस दिल में, अरमान अभी कुछ शेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

आधी कट चुकी है, जो काटनी थी एक उम्र,
भग्न अवशेषों के मध्य, अब काटनी है शेष उम्र,
दफ्न भी करनी पड़ेंगी, अस्थियाँ उस उम्र की,
बिखरी हुई, सारी निशानियाँ भग्नावशेष की,
इस उम्र की, सपनोंं केे जो अवशेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

जर्जर हो चले थे जो, भग्न वो ही सपने हुए,
समय की इस गर्भ में, दफ्न तो सारे अपने हुए,
रह सका है कौन, बिखरे हुए सपनों संग यहाँ,
नित काल-कवलित, होते रहे हैं सपने जवाँ,
नवीन सपने, फिर भी हजारों शेष है!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

बुन ले सपने नए, बना ले तू अट्टालिकाएं,
भग्न हो चुकी हैं जो, सजा ले वो अट्टालिकाएं,
बची है कुछ शाम जो, तू हँसी वो शाम कर,
बची है जाम जो, अपनों के ही नाम कर,
इस सांझ में, सितारे अभी कुछ शेष हैं!

बचे हैं कुछ ही दिन, अब कुछ ही शामें शेष हैं!
सपने हैं कुछ रूठे हुए, कुछ बचे,
भग्नावशेष हैं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 5 October 2019

गाहे-बगाहे

गाहे-बगाहे,
सुुुधि किसकी आ जाए!

गूंजी है ये, किसकी ॠचाएँ?
सुध-बुध सी खोई, है सारी दिशाएँ,
पंछी नादान, उड़ना न चाहे,
उसी ओर ताके, झांके,
गाहे-बगाहे!

जाने-अन्जाने,
सुुुधि किसकी आ जाए!

चितचोर वो, चित वो चुराए,
कोई डोर खींचे, वो पतंग सा उड़ाए!
गाए रिझाए, मन को सताए,
अँखियों से, नींदेें चुराए,
गाहे-बगाहे!

चाहे-अनचाहे,
सुुुधि किसकी आ जाए!

क्यूँ मन रोए, सुध-बुध खोए,
फैैैैलाए पंखों को, कहीं उड़ न पाए,
दिशाहीन, नील-नभ की राहें,
बरबस, मन भरमाए,
गाहे-बगाहे!

देखे-अनदेखे,
सुुुधि किसकी आ जाए!

तन्हा रहे, हाथों में हाथ गहे,
गूंज वही, सूनी राहों में साथ लिए,
है कौन, हर पग साथ रहे,
संग कही, लिए जाए,
गाहे-बगाहे!

बिन-बुलाए,
सुुुधि किसकी आ जाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday 2 October 2019

निस्पंद मन भ्रमर

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

व्यथा के अनुक्षण, लाख बाहों में कसे,
विरह के कालाक्रमण, नाग बन कर डसे,
हर क्षण संताप दे, हर क्षण तुझ पर हँसे,
भटकने न देना, तुम मन की दिशाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

तिरने न देना, इक बूँद भी नैनों से जल,
या प्रलय हो, या हो हृदय दु:ख से विकल,
दुविधाओं के मध्य, या नैन तेरे हो सजल,
भीगोने ना देना, इन्हें मन की ऋचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

गर ये नैन निर्झर, अनवरत बहती रही,
गर पिघलती रही, यूं ही सदा ये हिमगिरी,
गलकर हिमशिखर, स्खलित होती रही,
कौन वाचेगा यहाँ, वेदों की ऋचाएँ?

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

ध्यान रखना, ऐ पंखुडी की भित्तियाँ,
निस्पंद मन भ्रमर, अभी जीवित है यहाँ,
ये काल-चक्र, डूबोने आएंगी पीढियाँ,
साँसें साधकर, वाचना तुम ॠचाएँ!

संभव है डूब जाएँ, सृष्टि की ये कल्पनाएँ!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 29 September 2019

गुजरता वक्त

वक्त है गतिमान, रिक्त है वर्तमान,
वक्त से विलग, बस बचा है ये वियावान,
और है बची, इक मृग-मरीचिका,
सुनसान सा, कोई रेगिस्तान!

रिक्त से हैं लम्हे, सिक्त हैं एहसास,
गुजरता वक्त, छोड़ गया है कुछ मेरे पास!
अंदर जागी है, इक अकुलाहट सी,
जैसे कुछ थम सी गई है साँस!

वो समृद्ध अतीत, ये रिक्त वर्तमान,
खाली से हाथ, पल-पल टूटता अभिमान,
दूर से चिढ़ाता हुआ, वो ही आईना,
था कल तक, जिस पर गुमान!

जाने लगी है दूर, मरुवृक्ष की छाया,
कांति-विहीन, दुर्बल, होने लगी है काया,
सिमटने लगी हैं, धुंधली सी सांझ,
न ही काम आया, ये सरमाया!

सब लगता है, कितना असहज सा,
जैसे अपना ही कुछ, हो चुका पराया सा,
कैद हों चुकी हैं, जैसे कुछ तस्वीरें,
यादों में है बसा, चुनवाया सा!

है असलियत, गुजर जाता है वक्त,
तकती हैं ये हताश आँखें, होकर हतप्रभ,
तलाशती है "क्या कमी है मुझमें",
ढ़ूँढ़ती है, बीता सा वही वक्त!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा