Wednesday 19 May 2021

अर्धांग मेरे

आधा ही है, अधिकार तुम्हारा,
या सर्वस्व तुम्हारा,
अर्धांग मेरे!

कह दो, जो भी हो कहना,
खामोश लबों को,
दो बातों का, दो गहना,
चुप-चुप क्या रहना, मृगांक मेरे,
आधा जीवन क्या जीना,
अर्धांग मेरे!

सिर्फ, कहने को, आधे हो,
सर्वस्व, छुपाते हो,
चुप-चुप, लब सीते हो,
हँस कर, छुप-छुप, गम पीते हो,
मेरा अधिकार, मुझे दो,
अर्धांग मेरे!

यूँ, दो नैन, छलक जाने दो,
चैन इन्हें पाने दो,
यूँ, रात गुजर जाने दो,
अभी तो बाकी, जीवन वृतान्त,
निश्चित हो, इक सुखान्त,
अर्धांग मेरे!

देह पत्र तुम, बनूँ कलम मैैं,
यूँ लिखूं प्रपत्र मैं,
पर अधूरी ये पटकथा,
लिखने न पाऊं, तेरी ही व्यथा,
इक सर्वाधिकार, मुझे दो,
अर्धांग मेरे!

ले लो, जो हो तुमको लेना,
खाली, दो हाथों में,
पहनो, तुम मेरा गहना,
यूँ खामोश न रहना, मृगांक मेरे,
आधा जीवन क्या जीना,
अर्धांग मेरे!

आधा ही है, अधिकार तुम्हारा,
या सर्वस्व तुम्हारा,
अर्धांग मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 16 May 2021

गूढ़ बात

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

उनींदी सी, खुली पलक,
विहँसती, निहारती है निष्पलक,
मूक कितना, वो फलक!
छुपाए, वो कोई, 
इक राज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

लबों की, वो नादानियाँ,
हो न हो, तोलती हैं खामोशियाँ,
सदियों से वो सिले लब!
दबाए, वो कोई,
इक बात है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

हो प्रेम की, ये ही भाषा,
हृदय में जगाती, ये एक आशा,
यूँ ना धड़कता, ये हृदय!
बजाए, वो कोई,
इक साज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 14 May 2021

गुमसुम सा, ये घर

बड़ा ही, खुशमिजाज शहर था मेरा,
पर बड़ा ही खामोश, 
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

कल चमक उठती थी, ये आँखें,
इक उल्लास लिए,
आज फिरती हैं, ये आँखे,
अपनी ही, लाश लिए,
किन अंधेरों में, जा छुपा है सवेरा!

गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

धड़कनें थी, कोई उम्मीद लिए,
कितने संगीत लिए,
अब थम सी गई, हैं साँसें,
विरहा के, गीत लिए,
जाते लम्हों में कहाँ, विश्वास मेरा!

गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

मिल कर, चह-चहाते थे ये लब,
रुकते थे, ये कब,
आज, भूल बैठे हैं ये सब,
बेकरारी का, ये सबब,
ये तन्हाई, ले न ले ये जान मेरा!

गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

न जाने, फिर, वो सहर कब हो!
वो शहर, कब हो!
छाँव वाली, पहर कब हो!
मेरे सपनों का वो घर,
यूँ ही न उजड़े, ये अरमान मेरा!

बड़ा ही, खुशमिजाज शहर था मेरा,
पर बड़ा ही खामोश, 
गुमसुम सा, आज ये घर है मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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# कोरोना

Wednesday 12 May 2021

उनका ख्याल

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

समेट ले, कोई कैसे समुन्दर,
रोक लें कैसे, आती-जाती सी चंचल लहर,
दग्ध सा, मैं इक विरान किनारा,
उन्हीं लहरों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

यूँ तो रहे संग, सदियों मगर,
ज्यूँ, झौंके पवन के, बस गुजरते हों छूकर,
थका, मुग्ध सा, मैं तन्हा बंजारा,
उन्ही, झौकों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

अनगिनत, सितारे गगन पर,
चल दिए चाँद संग, इक सुनहरे सफर पर,
तकूँ, दुग्ध सा, मैं छलका नजारा,
उन्हीं नजारों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

कोई कैसे, समेट ले ये सफर,
गुजरती है, इक याद संग, जो इक उम्र भर,
स्निग्ध सा, मैं उस क्षण का मारा,
उन्हीं ख्यालों से हारा!

समेट लूँ, उनका ख्याल कैसे....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 11 May 2021

दिल, न दूँगा उधार

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

कौन खोए, चैन अपना!
बिन बात देखे, दिन रात सपना,
फिर उसी से, ये मिन्नतें,
करे हजार!

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

बेवजह ही, ये ख़्वाहिशें!
हर पल, कोई ख्वाब ही, ये बुने,
कोई काँच से, ये महल,
टूटे हजार!

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

मिली हैं, कितनी ठोकरें!
यूँ किसी, शतरंज की हों मोहरें,
जैसे चाल, वो चल गए,
कई हजार!

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

दूँ भी तो, फिर क्यूँ भला!
ये उधार, वापस ही कब मिला!
बिखर न जाएँ, धड़कनें,
मेरे हजार!

भले ही, बेकार....
पर न, ये दिल, किसी को दूंगा उधार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 8 May 2021

पाठक व्यथा-कथा

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

यूँ लिखते हो, तो दर्द बिखर सा जाता है,
ये टीस, जहर सा, असर कर जाता है,
ठहर सा जाता है, ये वक्त वहीं!
यूँ ना बांधो, ना जकड़ो, उस पल में मुझको,
इन लम्हों में, जीने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

करुण कथा, व्यथा की, यूँ, गढ़ जाते हो,
कोई दर्द, किसी के सर मढ़ जाते हो,
यूँ खत्म हुई कब, करुण कथा!
राहत के, कुछ पल, दे दो, आहत मन को,
जीवंत जरा, रहने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

यूँ, करूँ क्या, लेकर तुम्हारी ये संवेदना!
क्यूँ जगाऊँ, सोई सी अपनी चेतना!
कहाँ सह पाऊँगा, मैं ये वेदना!
अपनी ही संवेदनाओं में, बहने दो मुझको,
आहत यूँ ना, रहने दो अब मुझको!

ऐ कविवर, बिखरा दो, पन्नों पर, शब्दों को,
ताकि, शेष रहे ना, कुछ लिखने को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 6 May 2021

दोस्तों के नाम

लो दोस्त......

गर, रिक्त हो चला हो, 
तूणीर तेरा,
तेरी धमनियों में, ना थम रहा हो, 
रक्त का, उठता थपेरा,
तीर ले लो, तुम ये भी मेरा,
बरसों से, पड़े है ये,
जंग खाए,
अपनों पर, जो मुझसे चल न पाए,
शायद, संभाल ले ये,
उबाल तेरा!

लो दोस्त......

फिर भी, ना थमे गर,
तेरा जिगर,
तीर सारे, हो चले जब बेअसर,
भर लेना, फिर तूणीर,
या, घोंप देना, कोई खंजर,
ना रहे, कोई कसर,
ना मलाल,
रक्त, शायद मेरा, बन उड़े गुलाल,
शायद, निकाल दे ये,
उबाल तेरा!

लो दोस्त......

तुम लो, सारी दुआएँ,
सलाम मेरा,
यूँ चमकता रहे, तेरा हर सवेरा,
पर ना, भूल जाना,
दिल ही तेरा, मेरा ठिकाना,
सदा ही, धड़कूंगा मैं,
ना रुकुंगा,
हृदय मध्य, तुमसे ही आ मिलूंगा,
शायद, संभाल ले ये,
उबाल तेरा!

लो दोस्त......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 5 May 2021

अंजान रिश्ते

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
कब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

कल, पल न बन जाए भारी!
यूँ, निभा न यारी!
न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
न यूँ, बेकल पल बिता,
यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 4 May 2021

श्रद्धासुमन


आदरणीया डा. वर्षा जी के निधन  (निधन तिथि 03.05.2021), की खबर पाकर स्तब्ध हूँ। श्रद्धांजलि के रूप में पेश है, उनकी ही लिखी कुछ पंक्तियों से प्रभावित, एक कविता, मेरी ओर से एक श्रद्धासुमन-

जब भी खिल आएंगी, कहकशाँ,
वो याद आएंगे, बारहां!

बारिशों से, नज्म उनके, बरस पड़ेंगे,
दरख्तों के ये जंगल, उनकी ही गजल कहेंगे,
टपकती बूँदें, घुँघरुओं सी बज उठेंगी,
सुनाएंगी, कुछ नज्म उनके,
उनकी ही कहानियाँ!

वो याद आएंगे, बारहां!

इक नदी, बहती थी अंदर ही अंदर,
या छुपा कर उसने भी रखा था, इक समंदर,
वो ही प्रवाह, बन उठी थी लहर-लहर,
भिगोएंगी, रह-रहकर सदा,
उनकी ही रवानियाँ!

वो याद आएंगे, बारहां!

कहकशाँ, पूछेंगी चांदनी का पता,
जब कभी भूल जाएगी, वो अंधेरों में रास्ता,
उनकी चाँदनी मैं भी, रख लेता चुरा,
ढूढ़ेंगी, अब मेरी ये निगाहें,
उनकी ही निशांनियाँ!

जब भी खिल आएंगी, कहकशाँ,
वो याद आएंगे, बारहां!
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कई बार उनकी रचनाओं और मेरी ब्लॉग पर उनकी प्रतिकियाओं ने मुझे प्रेरित किया है।

उद्धृत है चर्चामंच पर उनके लिए आदरणीया कामिनी जी द्वारा लिखी गई एक प्रतिक्रिया का अंश जो उनके बारे में सबकुछ कह जाती है: - असाधारण लेखिका, कवयित्री, शायरा एवं कला-प्रेरिका वर्षा जी नहीं रहीं?  क्या यह विदुषी अब केवल स्मृति-शेष है? 

उनकी ब्लाॅग के लिंक्स-
https://varshasingh1.blogspot.com/
https://ghazalyatra.blogspot.com/
https://vichar-varsha.blogspot.com/

पेश है, स्व. वर्षा  जी की लिखी, कुछ पंक्तियाँ:
एक नदी बाहर बहती है, एक नदी है भीतर
बाहर दुनिया पल दो पल की, एक सदी है भीतर 

साथ गया कब कौन किसी के, रिश्तों की माया है 
बाहर आंखें पानी-पानी, आग दबी है भीतर 

एक लय है ख़ुशी, गुनगुनाओ ज़रा 
मुझको मुझसे कभी तो चुराओ ज़रा 

कौन जाने कहां सांस थम कर कहे -
"अलविदा !" दोस्तो, मुस्कुराओ जरा..
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उनके बारे में ज्यादा व्यक्तिगत जानकारी तो नहीं है, पर रचनाओं और उनकी लेखन कलाओं के माध्यम से उन्होंने एक अमिट छाप छोड़ी है मुझ पर। उनकी सशक्त रचनाएँ ब्लॉग जगत में एक मील के पत्थर की तरह अंकित रहेंगी।
उनकी असामयिक मृत्यु ब्लॉग जगत के लिए अपूरणीय क्षति है।
ईश्वर से उनकी दिवंगत आत्मा हेतु शांति की प्रार्थना करता हूँ।
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- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 2 May 2021

ऊँचाई

चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
कई प्रश्नों ने, आ घेरा है आकर!

अक्सर, अपनी ओर, खींचती है, ऊँचाई,
न जाने, कहाँ से बुन लाई!
ये जाल, भ्रम के...
एकाकी खुद ये, किसी को क्या दे!

अवशेष, अरमानों के, बिखरे हैं यत्र-तत्र,
उकेरे हैं, किसी ने ये प्रपत्र!
दुर्गम सी, ये राहें...
बैरागी खुद ये, किसी को क्या दे!

अवधूत सी, स्वानंद, समाधिस्त, ऊँचाई,
देखी ही कब इसने गहराई,
चेतनाओं, से परे....
विमुख खुद ये, किसी को क्या दे!

चाहा था, वो खुला सत्य, देखूँ मैं जाकर!
लेकिन, इस ऊँचाई पर,
इक शून्य ने, आ घेरा है आकर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)