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Friday, 21 May 2021

लब खोल दो

बोल दो, अबोले बोल दो!
लब, खोल दो!

आज, चुप है क्यूँ ये चूड़ियाँ,
चुप है, क्यूँ पायल,
चुप, हो तुम,
सूने पल को, दो, बोल दो,
लब खोल दो!

छनन-छन, छनकते वो क्षण,
इठलाते से, वो घन,
बहती पवन,
ये, मौन कितने, बोल दो,
लब खोल दो!

पर्वतों पर, झुक रही वो घटा,
न्यारी सी, वो छटा,
विहँसता घटा,
दो बोल, ऐसे ही बोल दो,
लब खोल दो!

घड़ी भर, चैन पा ले, ये मन,
खनक ले, ये क्षण,
आवाज संग,
ये राज, है क्या, बोल दो,
लब खोल दो!

बोल दो, अबोले बोल दो!
लब, खोल दो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 16 May 2021

गूढ़ बात

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

उनींदी सी, खुली पलक,
विहँसती, निहारती है निष्पलक,
मूक कितना, वो फलक!
छुपाए, वो कोई, 
इक राज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

लबों की, वो नादानियाँ,
हो न हो, तोलती हैं खामोशियाँ,
सदियों से वो सिले लब!
दबाए, वो कोई,
इक बात है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

हो प्रेम की, ये ही भाषा,
हृदय में जगाती, ये एक आशा,
यूँ ना धड़कता, ये हृदय!
बजाए, वो कोई,
इक साज है!

कोई गूढ़ सी, वो बात है......

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 27 December 2020

कैसा परिचय

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

फिर क्यूँ, मुड़ गई ये राहें!
मिल के भी, मिल न पाई निगाहें!
हिल के भी, चुप ही रहे लब,
शब्द, सारे तितर-बितर,
यूँ न था मिलना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

यूँ तो फूलों में दिखते हो!
कुनकुनी, धूप में खिल उठते हो!
धूप वही, फिर खिल आए हैं,
कई रंग, उभर आए हैं,
बन कर, अल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 19 May 2016

नभ पर वो तारा

नभ पर हैं कितने ही तारे, एकाकी क्युँ मेरा वो संगी?

वो एकाकी तारा! धुमिल सी है जिसकी छवि,
टिमटिमाता वो प्रतिक्षण जैसे मंद-मंद हँसता हो कोई,
टिमटिमाते लब उसके कह जाती हैं बातें कई,
एकाकी सा तारा वो, शायद ढूंढ़ता है कोई संगी?

वो एकाकी तारा! नित छेड़ता इक स्वर लहरी,
पुकारता वो प्रतिक्षण जैसे चातक व्यग्र सा हो कोई,
टिमटिमाते लब जब गाते गीत प्यारी सी सुरमई,
है कितना प्यारा वो, पर उसका ना कोई संगी!

वो एकाकी तारा! मैं हूँ अब उसका प्रिय संगी,
कहता वो मुझसे प्रतिक्षण मन की सारी बातें अनकही,
टिमटिमाते लब उसके हृदय की व्यथा हैं कहती,
एकाकी तारे की करुणा में अब मैं ही उसका संगी!

Sunday, 10 April 2016

लब्जों मे बयाँ

लब्जों में बयाँ जो हम कर न सके,
अल्फाज वो ही दिलों में दबी रह गई,
वो फसाना बहुत खूबसूरत सा था,
बात गुजरे जमाने की अब वो हो गई।

वो अल्हड़ सी उनकी नादानियाँ,
शब्दों में लिखी जैसे अनकही कहानियाँ,
लब्जों पे रुकी लहर सी कहीं,
अब गुनगुनाती हुई कोई गजल बन गईं।

जुल्फ खुल के कभी लहराए थे,
खुली गेसुओं में कुछ धुंधले से साये भी थे,
सीरत-ए-बयाँ ये लब्ज कर न सके,
वो लहराते से मंजर अब यादों में बस गईं।

छलके नैनों में अब अक्श एक ही,
उन खुले नैनों में उभरी है इक तस्वीर वही,
नीर नैनों के लब्जों पे बह न सके,
वो छलकते से नैन अब जाम में ढ़ल गई।

Wednesday, 30 March 2016

बेजुबाँ हृदय

मूक हृदय की पीड़ा कभी कह नही पाए वो लब!

सुलगती रही आग सी हृदय के अंतस्थ,
तड़पती रही आस वो हृदय के अंतस्थ,
झुलसती रही उस ताप से हृदय के अंतस्थ,
दबी रही बात वो हृदय के अंतस्थ!

बेजुबाँ हृदय की भाषा कब समझ सके हैं सब!

धड़कनों की जुबाँ कहता रहा मूक हृदय सदा,
भाव धड़कनों की लब तक न वो ला सका,
पीड़ा उस हृदय की नैनों ने लेकिन सुन लिया,
बह चली धार नीर की उन नैनों से तब!

मूक हृदय की पीड़ा कभी कह नही पाए वो लब!

Friday, 11 March 2016

ये लब सिले सिले से

इक उदासी सी छाई क्युँ आपके चेहरे पे ?

वो चुभन कौन सी आपके दिल में,
जी दिख रही बरबस आपके मुखड़े पे,
बयाँ कर रही दास्ताँ बहुत कुछ ये नम आँखें,
कह रही दर्द कैसी ये लब सिले सिले से।

इक उदासी सी छाई क्युँ आपके चेहरे पे ?

ये सिहरन सी कैसी आपके बदन में,
जो दिख रही बरबस लड़खड़ाये कदमों में,
बयाँ कर रही दास्ताँ ये होश कुछ उड़े-उड़े से,
कह रही दर्द कैसी ये होठ काँपते से।

इक उदासी सी छाई क्युँ आपके चेहरे पे ?