Saturday, 5 December 2020

धुआँ

ऐ दिल, अब भूल जा,
पतझड़ों में, फूल की, कर न तू कल्पना!
सच है वो, जो सामने है,
और है क्या?

चलो, मैं मान भी लूँ!
अल्पना बनती नहीं, कल्पनाओं के बिना,
है रंग वो, जो सामने है,
और है क्या?

मान, इक सपना उसे!
इस भ्रम में, यथार्थ की, कर न तू कल्पना,
रेत है वो, जो सामने है,
और है क्या?

दिल नें, माना ही कब,
बस रेत पर, लिखता रहा, वो इक तराना,
गीत वो है, जो सामने है,
और है क्या?

ऐ दिल, अब भूल जा,
बादलों में, इक घर की, कर न तू कल्पना,
धुआँ है वो, जो सामने है,
और है क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

18 comments:

  1. हमारे होने की यही कहानी है कि इन धुआँओ से जो कल्पन- कुसुम खिलाते हैं वो कुछ ज्यादा ही सुकून भरा होता है । चाहे मन को कितना भी रोका जाए । बहुत अच्छा लिखते हैं आप । अच्छा लगा ।

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    1. जी, शुक्रिया आदरणीया। ।।।। आभारी हूँ आपका।

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 06 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. ऐ दिल, अब भूल जा,
    बादलों में, इक घर की, कर न तू कल्पना,
    धुआँ है वो, जो सामने है,
    और है क्या?
    पर दिल मानता कहाँ है कल्पना करना सपने देखना
    छोड़ता ही कब है
    बहुत सुन्दर...
    लाजवाब सृजन।

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    1. विनम्र आभार आदरणीया सुधा देवरानी जी।

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  4. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय सान्याल जी।

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  5. बहुत बहुत सुंदर रचना

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  6. चलो, मैं मान भी लूँ!
    अल्पना बनती नहीं, कल्पनाओं के बिना,
    है रंग वो, जो सामने है,
    और है क्या?
    वाह!
    कल्पना और यथार्थ का अद्भुत मिश्रण।

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