ऐ दिल, अब भूल जा,
पतझड़ों में, फूल की, कर न तू कल्पना!
सच है वो, जो सामने है,
और है क्या?
चलो, मैं मान भी लूँ!
अल्पना बनती नहीं, कल्पनाओं के बिना,
है रंग वो, जो सामने है,
और है क्या?
मान, इक सपना उसे!
इस भ्रम में, यथार्थ की, कर न तू कल्पना,
रेत है वो, जो सामने है,
और है क्या?
दिल नें, माना ही कब,
बस रेत पर, लिखता रहा, वो इक तराना,
गीत वो है, जो सामने है,
और है क्या?
ऐ दिल, अब भूल जा,
बादलों में, इक घर की, कर न तू कल्पना,
धुआँ है वो, जो सामने है,
और है क्या?
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
हमारे होने की यही कहानी है कि इन धुआँओ से जो कल्पन- कुसुम खिलाते हैं वो कुछ ज्यादा ही सुकून भरा होता है । चाहे मन को कितना भी रोका जाए । बहुत अच्छा लिखते हैं आप । अच्छा लगा ।
ReplyDeleteजी, शुक्रिया आदरणीया। ।।।। आभारी हूँ आपका।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 06 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद। ।।।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया आभार।
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ReplyDeleteऐ दिल, अब भूल जा,
बादलों में, इक घर की, कर न तू कल्पना,
धुआँ है वो, जो सामने है,
और है क्या?
पर दिल मानता कहाँ है कल्पना करना सपने देखना
छोड़ता ही कब है
बहुत सुन्दर...
लाजवाब सृजन।
विनम्र आभार आदरणीया सुधा देवरानी जी।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय जोशी जी
Deleteसार्थक रचना।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीय मयंक जी
Deleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय सान्याल जी।
Deleteबहुत बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया भारती जी।
Deleteचलो, मैं मान भी लूँ!
ReplyDeleteअल्पना बनती नहीं, कल्पनाओं के बिना,
है रंग वो, जो सामने है,
और है क्या?
वाह!
कल्पना और यथार्थ का अद्भुत मिश्रण।
आभारी हूँ आदरणीया सधु जी
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