निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!
देशहित से परे, न आंदोलन कोई,
देशहित से बड़ा, होता नहीं निर्णय कोई,
देशहित से परे, कहाँ संसार मेरा,
देशहित ही रहा संस्कार मेरा,
पर, डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!
निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
प्रतिनिधि चुना, खुद मैंने हाथों से,
प्रभावित कितना था मैं, उनकी बातों से!
इक दीप सा था, वो प्रकाश मेरा,
खड़ा सामने था, इक सवेरा,
पर, डिग रहा अब, विश्वास मेरा!
निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
अंधेरों में, रुक चुका है ये कारवाँ,
भरोसे के काबिल, शायद, न कोई यहाँ!
रिक्तियों से भरा, अंकपाश मेरा,
निःपुष्प सा, ये पलाश मेरा,
डिगने लगा है, अब विश्वास मेरा!
निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
चालें, अपनी ही, नित चलता रहा,
वो फरेबी, इक चक्रव्यूह ही रचता रहा,
कल तक, वो था संगतराश मेरा,
ले न आए वही, विनाश मेरा!
ऐसा डिग रहा अब, विश्वास मेरा!
निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
सर्वोपरि हो, देश हित, फिर हैं हम,
पर उसी नें इस देश में, फैलाया है भ्रम,
इक अंधकार में है, आकाश मेरा,
निराधार ही था, विश्वास मेरा!
ऐसा डिग चला अब, विश्वास मेरा!
निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
चालें, अपनी ही, नित चलता रहा,
ReplyDeleteवो फरेबी, इक चक्रव्यूह ही रचता रहा,
कल तक, वो था संगतराश मेरा,
ले न आए वही, विनाश मेरा!
ऐसा डिग रहा अब, विश्वास मेरा!
बेहतरीन रचना आदरणीय 👌
प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आदरणीया अनुराधा जी।
Deleteयहां सब फरेब खाये बैठे हैं
ReplyDeleteफरेब और विश्वास दोनों सौतन हैं या बहनें है... कौन निर्णय करे।
पर हर मंजर पर आंखे उग आना ही बड़ी बात है।
लाजवाब
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आदरणीय रोहितास जी।
Deleteवाह
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय
Deleteअंधेरों में रुक चुका है ये कारवां
ReplyDeleteभरोसे के काबिल, शाय़द न कोई यहां
बहुत ही सुन्दर रचना
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteसर्वोपरि हो, देश हित, फिर हैं हम,
ReplyDeleteपर उसी नें इस देश में, फैलाया है भ्रम,
इक अंधकार में है, आकाश मेरा,
निराधार ही था, विश्वास मेरा!
ऐसा डिग चला अब, विश्वास मेरा!...बहुत सारगर्भित और समसामयिक रचना..।आपको हार्दिक शुभकामनाएँ...।
प्रेरक शब्दों हेतु आभार आदरणीया
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 14 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार
Deleteसुंदर रचना।
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया सधु जी
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