नहीं, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!
हाँ, बीत जाते हैं जो, साथ होते नहीं,
पर वो पल, बीत पाते हैं कहाँ!
सजर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
पलों के, विशाल यूकेलिप्टस!
लपेटे, सूखे से छाले,
फटे पुराने!
नया, कुछ भी नहीं....
बीत जाते हैं युग, वक्त बीतता नहीं,
कुछ, वक्त के परे, रीतता नहीं!
अकेले ही भीगता, पलों का यूकेलिप्टस,
कहीं शून्य में, सर को उठाए!
लपेटे, भीगे से छाले,
फटे पुराने!
नया, कुछ भी नहीं....
हाँ, पुराने वो पल, पुरानी सी बातें,
गुजरे से कल, रुहानी वो रातें!
उभर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
लह-लहाते, वो यूकेलिप्टस!
लपेटे, रूखे से छाले,
फटे पुराने!
और, कुछ भी नहीं!
तुम, न हो तो, कहीं कुछ भी नहीं!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteगुजरे हुए जीवन की एहसास कराती हुई ये रचना बहुत ही सुन्दर है
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया
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ReplyDeleteहाँ, पुराने वो पल, पुरानी सी बातें,
गुजरे से कल, रुहानी वो रातें!
उभर ही आते हैं, कहीं, मन की धरा पर,
लह-लहाते, वो यूकेलिप्टस!
लपेटे, रूखे से छाले,
फटे पुराने!..खूबसूरत स्मृतियों का अहसास करती सुंदर कृति..।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 14 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार आदरणीया
Deleteलाजवाब।
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय रोहितास जी
Deleteप्रिय से दूर रहकर जो एहसास होते हैं वो बखूबी उकेरे हैं आपने। जब यूकेलिप्टस! लहलहाने लगते हैं तो और कुछ कहां सरसता है।
ReplyDeleteवाह!!
शुक्रिया आदरणीया कुसुम जी।
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