और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!
सदियों तलक, चुप रहे कल तक,
ज्यूँ, बेजुबां हो कोई,
इक ठहरी नदी, कहीं हो, खोई-खोई,
पर, हो चले आज कितने,
चंचल से तुम!
और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!
रहा मैं, किनारों पे खड़ा, चुपचाप,
बह चली थी वो धारा,
बेखबर, जाने किसका था, वो ईशारा,
बस बह चले थे, प्रवाह में,
निर्झर से तुम!
और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!
बज उठा, कंदराओं में संगीत सा,
गा उठी, सूनी घाटियाँ,
चह-चहा उठी, लचक कर, डालियाँ,
छेड़ डाले, अबकी तार सारे,
सितार के तुम!
और कितने, राज गहरे खोलोगे तुम!
और कितना, बोलोगे तुम!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
वाह
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 12 दिसंबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप सादर आमंत्रित हैं आइएगा....धन्यवाद! ,
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-12-2020) को "मैंने प्यार किया है" (चर्चा अंक- 3914) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
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ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया
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