पुकारती ही रहना!
वही आवाज! साज थे, जो कल के मेेेरे,
वहीं, इस शून्य को पाटती है,
तुम्हारी गुनगनाहट!
तुम्हारी गूंज,
नदी के, इस पार तक आती है!
बने दो तीर कब!
इक धार, न जाने किधर बट चले कब!
अनमनस्क, बहते दो किनारे,
कब से बे-सहारे,
वो एक धार,
नदी के, इस पार तक आती है!
निश्छल, धार वो!
मगर, पहले सी, फिर हुई ना उत्श्रृंखल,
बस, किनारा ही, पखारती है,
मझधार कलकल,
एक हलचल,
नदी के, इस पार तक आती है!
कभी फिर गुजरना!
वैसी ही रहना, छल-छल यूँ ही छलकना,
वही, दो किनारों को पाटती है,
तेरे पाँवों की आहट,
आवाज बनकर,
नदी के, इस पार तक आती है!
पुकारती ही रहना!
कुछ भी कहना! ठहरे हैं जो पल ये मेरे,
ठहर कर, तुझे ही ताकती हैं,
शून्य में, बिखरी हुई,
आवाज तेरी,
नदी के, इस पार तक आती है!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
हृदयंगम।
ReplyDeleteगहराई से रचित रचना। अति सुंदर।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया सधु जी।
Deleteबहुत सुंदर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteशुक्रिया आभार आदरणीय नीतीश जी
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया अभिलाषा जी।
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय जोशी जी।
Deleteप्रेरक और शिक्षाप्रद।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मयंक जी।
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