वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!
शायद दूर था, उसकी आशाओं का घर!
बांध रखी थी, उम्मीदों की गठरियाँ,
और, ये सफर, काँटों भरा....
राहों में, वो ही कहीं, अब गौण था!
बड़ा ही मौन था!
शायद, धू-धू, सुलग रही थी, आग इक!
जल चुके थे, सारे सपनों के शहर,
और, धुँआ सा, उठता हुआ.....
उस धुँध में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!
शायद था थका, हताश अब भी न था!
वो इक परिंदा, था उम्मीदों से बंधा,
और, नीलाभ, तकता हुआ....
आकाश में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!
वो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
पर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
उम्दा रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteवाह,बहुत सुंदर।
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९ -०६-२०२१) को 'लिप्सा जो अमरत्व की'(चर्चा अंक -४०९१ ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
विनम्र आभार
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteवो इक परिंदा, था उम्मीदों से बंधा,
ReplyDeleteऔर, नीलाभ, तकता हुआ....
आकाश में, खुद कहीं वो गौण था!
बड़ा ही मौन था!--बहुत ही शानदार...
विनम्र आभार
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteसुंदर भावों का सृजन ।
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteवो, जाने कौन था, बड़ा ही मौन था!
ReplyDeleteपर, वो आँखें, कुछ बोलती थी!
वाह !! हृदयस्पर्शी रचना,सादर नमन आपको
विनम्र आभार
Deleteवाह बहुत सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteविनम्र आभार
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