Tuesday, 1 June 2021

तसल्ली

दिल को, तसल्ली थोड़ी सी,
मैंने, दी तो थी,
अभी,
कल ही!

पर ये जिद पर अड़ा, रूठ कर पड़ा,
बेवजह, दूर वो खड़ा,
किसी की, चाह में,
उसी राह में,
बेवजह, इक अनबुने से ख्याल में!

कोई मूर्त हो, तो, ला भी दूँ, मैं भला,
पर, अमूर्त कब मिला!
अजीब सी चाह है,
इक प्रवाह है,
बेवजह, बहल रहा, उस प्रवाह में!

करे वो कैसे, इक सत्य का सामना,
जब, प्रबल हो कामना,
बुने, कोई उधेड़बुन, 
छेड़े वही धुन,
वो ही गीत, खुद सुने, एकान्त में!

दिल को, तसल्ली थोड़ी सी,
मैंने, दी तो थी,
अभी,
कल ही!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

16 comments:

  1. दिल को, तसल्ली थोड़ी सी,
    मैंने, दी तो थी,
    अभी,
    कल ही!..सच कहा पुरुषोत्तम जी आपने,इधर हम दिल को तसल्ली देते हैं, उधर उसे दूसरा कुछ नया दर्द
    अपनी गिरफ्त में ले लेता,सुंदर भावों भरी कविता,सादर शुभकामनाएं ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. विनम्र आभार आदरणीया जिज्ञासा जी।

      Delete
  2. कोई मूर्त हो, तो, ला भी दूँ, मैं भला,
    पर, अमूर्त कब मिला!
    अजीब सी चाह है,
    इक प्रवाह है,
    बेवजह, बहल रहा, उस प्रवाह में!---बहुत ही गहन लेखन...।

    ReplyDelete
  3. कोई मूर्त हो, तो, ला भी दूँ, मैं भला,
    पर, अमूर्त कब मिला!
    अजीब सी चाह है,
    इक प्रवाह है,
    बेवजह, बहल रहा, उस प्रवाह में!
    सचमुच कई बार दिल को कितना भी समझा लो पर ये दिल है कि मानता नहीं वाला हाल होता है
    इसके इसी हाल को बहुत ही सरल सहज और खूबसूरत तरीक़े से बयां किया है आपने...
    वाह!!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. विनम्र आभार आदरणीया सुधा देवरानी जी।

      Delete
  4. बहुत सुन्दर भाव, बधाई.

    ReplyDelete

  5. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 9 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  6. अति सुंदर भाव । बधाई ।

    ReplyDelete