उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!
कब से हैं बैठे, इन अंधेरों में हम,
छलकने लगे, अब तो गम के ये शबनम,
जला दीजिए ना, दो नैनों के ये दिए,
यहाँ रौशनी, कम है जरा!
उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!
इक भीड़ है, लेकिन तन्हा हैं हम,
बातें तो हैं, पर कहाँ उन बातों में मरहम,
शुरू कीजिए, फिर वो ही सिलसिले,
यहाँ बानगी, कम हैं जरा!
उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!
नजदीकियों में, समाई हैं दूरियाँ,
पास रह कर भी कोई, दूर कितना यहाँ,
दूर कीजिए ना, दो दिलों की दूरियाँ,
यहाँ बन्दगी, कम हैं जरा!
उतर आइए ना, फलक से जमीं पर,
यहाँ चाँदनी, कम है जरा!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 22 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteविनम्र आभार
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (22 -6-21) को "योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत"(चर्चा अंक- 4103) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
विनम्र आभार
Deleteमनमोहक अनुभूतियों का सृजन ।
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteप्रेम पगी खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनजदीकियों में, समाई हैं दूरियाँ,
ReplyDeleteपास रह कर भी कोई, दूर कितना यहाँ,
दूर कीजिए ना, दो दिलों की दूरियाँ,
यहाँ बन्दगी, कम हैं जरा!---वाह पुरुषोत्तम जी।
विनम्र आभार आदरणीय
Deleteइक भीड़ है, लेकिन तन्हा हैं हम,
ReplyDeleteबातें तो हैं, पर कहाँ उन बातों में मरहम,
शुरू कीजिए, फिर वो ही सिलसिले,
यहाँ बानगी, कम हैं जरा!
भीड़ में भी तन्हा है दिल...।
पास आओ तो कम हो मुश्किल
वाह!!!
लाजवाब सृजन।
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteविनम्र आभार आदरणीया
Deleteकब से हैं बैठे, इन अंधेरों में हम,
ReplyDeleteछलकने लगे, अब तो गम के ये शबनम,
जला दीजिए ना, दो नैनों के ये दिए,
यहाँ रौशनी, कम है जरा!
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण पंक्तियां
विनम्र आभार आदरणीया
Deleteइक भीड़ है, लेकिन तन्हा हैं हम,
ReplyDeleteबातें तो हैं, पर कहाँ उन बातों में मरहम,
शुरू कीजिए, फिर वो ही सिलसिले,
यहाँ बानगी, कम हैं जरा!
रूमानियत की सुंदर बानगी !
अभिनन्दन व विनम्र आभार आदरणीया रेणु जी।
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