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Tuesday, 24 March 2020

अद्भुत कोरोना

अद्भुत है, कोरोना!
शायद, जरूरी है, इक डर का होना!
कर-बद्ध,
जुड़े रब से हम,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर है सूना,
है ये स्वार्थ, 
या प्रबल है आस्था!
कहो ना!

कहीं न कहीं, निहित है इक डर,
समाहित है भय,
वर्ना, यूँ न डोलती, मेरी आस्था!
यूँ, न छोड़ते,
हम, मंदिर का रास्ता!
यूँ, न ढूंढते,
तन्हाई में, खुद का पता!

यूँ, ये शहर, न हो जाते वीरान,
ज्यूं, हो श्मशान,
न डरते, आबादियों से इन्सान!
यूँ, न सिमटते,
दूरियों में, हमारे रिश्ते!
यूँ, न करते,
दिल, तोड़ देने की खता!

गली-गली, यूँ न गूंजते ये शंख,
करोड़ों तालियाँ,
असंख्य थालियाँ, बजते न संग!
यूँ, न गुजरते,
कहीं, फासलों से हम!
यूँ, न जागते,
मेरे एहसास, गुमशुदा!

अद्भुत है, कोरोना!
शायद, जरूरी है, इक डर का होना!
कर-बद्ध,
जुड़े रब से हम,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर है सूना,
है ये स्वार्थ, 
या प्रबल है आस्था!
कहो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 15 April 2017

भरम वहम

इक भरम सा हुआ मन को,
चोरी चोरी चुपके किन्ही बातों से जरा डर गए वो,
वहम है ये मेरा या हकीकत है कोई वो!

शीतल सी कोई पवन है वो,
या चिंगारी सी जलती हुई दहकती अगन है वो,
लग रहा जैसे मेरा ही भरम है वो,
शायद थोड़ी डरी सहमी सी वहम है वो!

अब तो हर पल मन मे है वो,
चाहता है ये मन खूबसूरत सा वो वहम हर पल हो,
डरता है ये मन के भरम टूटे न वो,
बड़ी शिद्दत से पाला है दिल मे भरम को!

चुपके ही सही कुछ तो कहो,
न जाने ये पल, ये वहम, या कहीं हम कल हो न हो,
दास्ताँ कोई अनकही बन जाने तो दो,
बेसबर सा है ये मन ख्वाबों में आने तो दो।

इक भरम सा हुआ मन को,
चोरी चोरी चुपके किन्ही बातों से जरा डर गए वो,
वहम है ये मेरा या हकीकत है कोई वो!

Sunday, 10 April 2016

रात

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात के साए,
खामोश गुजरते रहे,
लगी रही बस एक चुप सी,
सन्नाटे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात टूटी सी,
रात रोती रही रात भर,
काली कफन में लिपटी सी,
झिंगुर मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात गुमसुम सी,
कुछ कह गई थी कानों में,
सुन न पाए सपन में डूबे हम,
तारे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात खोई-खोई सी,
जाने किन उलझनों में फसी सी,
बरसती रही ओस बन के गुलाब पर,
कलियाँ मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!

वो रात विरहन सी,
मिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।

डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!