डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात के साए,
खामोश गुजरते रहे,
लगी रही बस एक चुप सी,
सन्नाटे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात टूटी सी,
रात रोती रही रात भर,
काली कफन में लिपटी सी,
झिंगुर मगर गुनगुनाते रहे रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात गुमसुम सी,
कुछ कह गई थी कानों में,
सुन न पाए सपन में डूबे हम,
तारे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात खोई-खोई सी,
जाने किन उलझनों में फसी सी,
बरसती रही ओस बन के गुलाब पर,
कलियाँ मगर गुनगुनाती रही रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात विरहन सी,
मिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात के साए,
खामोश गुजरते रहे,
लगी रही बस एक चुप सी,
सन्नाटे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात टूटी सी,
रात रोती रही रात भर,
काली कफन में लिपटी सी,
झिंगुर मगर गुनगुनाते रहे रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात गुमसुम सी,
कुछ कह गई थी कानों में,
सुन न पाए सपन में डूबे हम,
तारे मगर गुनगुनाते रहे रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात खोई-खोई सी,
जाने किन उलझनों में फसी सी,
बरसती रही ओस बन के गुलाब पर,
कलियाँ मगर गुनगुनाती रही रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
वो रात विरहन सी,
मिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।
डराती रही रात, मगर हम गुनगुनाते रहे रात भर!
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
१० जून २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ...
Deleteवो रात विरहन सी,
ReplyDeleteमिल न पाई कभी भोर से,
रही दूर ही उजालों के किरण से,
दीपक मगर गुनगुनाती रही रात भर।
बहुत ही सुंदर ,सादर नमस्कार
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ...
Deleteवाह!!पुरुषोत्तम जी ,बहुत खूब!!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ...
Deleteबहुत सुन्दर सृजन आदरणीय
ReplyDeleteसादर
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया ...
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