Friday, 15 January 2016

सिमटती परछाँई


कहते हैं परछाईं हमेशा साथ चलती हैं,
लघुता गुरुता के हर क्षण बदलती निरंतर,
पर मुश्किल क्षणों में साया भी साथ नही,
सिमट कर दुबक जाती है पैरों तले,
या फिर पड़ जाती निरंकार शरीर के नीचे।

सुबह की खुशनुमा बेला,
दिखती बेलों से भी लंबी लतराई,
एहसास कराती अपनी गुरूता का,
चिलचिलाती दोपहर ये,
दुबक जाती अपनी ही सायों तले,
तम रात्रि बेला उतर जाते चोला,
एहसास करती अपनी लघुता का पीछे।

रंग बदलती साथ समय के,
नाचती इर्द-गिर्द बेशर्म निःसंकोच,
अपना अस्तित्व बचाने को बदलती निरंतर,
न कोई लक्ष्य न कोई सिद्धांत,
तम रात्रि छोडती जन्म देने वाले शरीर को भी,
छुपा लेती सर कहीं उस कालिमा के नीचे।

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