मुक्त न कोई हो पाया,
चक्रव्युह इस तृष्णा का,
जग में कोई तोड़ न पाया,
अवसान वेला बची न तृष्णा,
चिरनिद्रा आगोश मे लेकर,
मौन ही इनसे मुक्त करेगा!
अकेन्द्रित चेतन का द्वार,
जीते जी न खुल सकेगा,
जीवन गांठ खुला न तुझसे,
जीकर भी तू क्या करेगा,
चिर निद्रा की आएगी वेला,
उस दिन तू वो राह पकड़ेगा,
मौन ही तुझको मुक्त करेगा!
शब्दों से परे नाद तू बोलता,
संवेदना से परे हैं तेरे संवाद,
अहंकार, ईर्ष्या घेरे है तुृझको,
ईन पर तू कब विजय करेगा,
जीते जी तू क्या मानव बनेगा,
इक दिन तू भी वो राह पकड़ेगा,
मौन ही तुझको मुक्त करेगा!
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