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Thursday, 31 May 2018

वृथा ये अभिमान

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

दो घड़ी का बस है ये जीवन,
इधर साँस टूटी, उधर टूटा ये बंधन!
क्यूं है इस सत्य से अन्जान?
है मृदा से बना तू, न कर अभिमान ऐ इन्सान!

है वृथा का ये अभिमान.....

इस माटी से बना ये तन तेरा,
पंचतत्व की, इक ढ़ेर पर है तू खड़ा!
क्यूं फिराक में तू है जुड़ा?
पंचतत्व में ही विलीन होकर, तू पाएगा त्राण!

है वृथा का ये अभिमान.....

मृषा ही मलीन है ये तेरा मन,
वृथा ही विषाद में, है निष्कपट मन,
क्यूं ढ़ो रहा है तू अभिमान?
रम रहा ईश्वर ही सबके मन, तू जरा ये जान!

है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!

Tuesday, 4 April 2017

ऐ कुम्हार

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! रख दे तू चाक पर तन मेरा ये माटी का,
छू ले तू मुझको ऐसे, संताप गले मन का,
तू हाथों से गूंध मुझे, मैं आकार धरूँ कोई ढंग का,
तू रंग दे मुझको ऐसे, फिर रंग चढै ना कोई दूजा,
बर्तन बन निखरूँ मैं, मान बढाऊँ आंगन का।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! माटी का तन मेरा, कठपुतली तेरे हाथों का,
तू रौंदता कभी गूँधता, आकार कोई तू देता,
हाथों से अपने मन की, कल्पना साकार तू करता,
कुछ गुण मुझको भी दे, मैं ढल जाऊ तेरे ढंग का,
एक हृदय बन देखूँ मैं, कैसा है जीवन सबका।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।

ऐ कुम्हार! तन मेरा माटी का, क्युँ दुख न ये झेल सका,
सुख की आश लिए, क्युँ ये मारा फिरता,
पिपाश लिए मन में, क्युँ इतना क्षुब्ध निराश रहता,
करुवाहट भरे बोलों से, क्युँ औरों के मन बिंथता,
इक मन तू बना ऐसा, सुखसार जहाँ मिलता।

तू ले चल उस ओर मुझे, जहाँ आश पले मन का।