इधर साँस टूटी, उधर टूटा ये बंधन!
क्यूं है इस सत्य से अन्जान?
है मृदा से बना तू, न कर अभिमान ऐ इन्सान!
है वृथा का ये अभिमान.....
इस माटी से बना ये तन तेरा,
पंचतत्व की, इक ढ़ेर पर है तू खड़ा!
क्यूं फिराक में तू है जुड़ा?
पंचतत्व में ही विलीन होकर, तू पाएगा त्राण!
है वृथा का ये अभिमान.....
मृषा ही मलीन है ये तेरा मन,
वृथा ही विषाद में, है निष्कपट मन,
क्यूं ढ़ो रहा है तू अभिमान?
रम रहा ईश्वर ही सबके मन, तू जरा ये जान!
है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!
क्यूं है इस सत्य से अन्जान?
है मृदा से बना तू, न कर अभिमान ऐ इन्सान!
है वृथा का ये अभिमान.....
इस माटी से बना ये तन तेरा,
पंचतत्व की, इक ढ़ेर पर है तू खड़ा!
क्यूं फिराक में तू है जुड़ा?
पंचतत्व में ही विलीन होकर, तू पाएगा त्राण!
है वृथा का ये अभिमान.....
मृषा ही मलीन है ये तेरा मन,
वृथा ही विषाद में, है निष्कपट मन,
क्यूं ढ़ो रहा है तू अभिमान?
रम रहा ईश्वर ही सबके मन, तू जरा ये जान!
है वृथा का ये अभिमान.....
हैं पल भर के यहाँ, हम सभी मेहमान!